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जयपुर (खानिया) तवचर्चा
रखता है तो उनमें स्वाधित प्रामाणिकता कैसे हो सकती हैं, अर्थात् शब्दों में स्वाश्रित प्रामाणिकता नहीं है। इस प्रकार आपका दिव्वनिको स्वाश्रित प्रमाण कहना आगमविरूद्ध है । उसमें केवलज्ञानकी प्रमाणतासे हो प्रमाणता आई हैं, क्योंकि वक्ताको प्रमाणता से वचनों में प्रमाणता आती है ऐसा न्याय है। वल १ पृ० १६६, जयवल १० ८८ ।
शब्दको प्रामाणिकता पराश्रित कैसे है इस बातको बतलानेवाला यह अपर पक्षका सभ्य है । इस व्यद्वारा नों पर पाला गया है
(१) पुरुषके व्यापारको अपेक्षा रखनेके कारण शब्दों में पदार्थो की अर्थप्रतिपादकता कृत्रिम '
(२) शब्दों के द्वारा पदार्थोंकी प्रकाशकला पुरुषव्यापारको अपेक्षा रखता है, इसलिए उनमें स्वाश्रित प्रामाणिकता नहीं हो सकती ।
(३) दिव्यध्वनि में केवलज्ञानको प्रमाणता से प्रमाणता आई है, इसलिए दिव्यध्वनिको स्वाश्रित प्रमाण कहना आगमविरुद्ध है ।
(४) लौकिक या आगम शब्दों की सहज योग्यता पुरुषोंके द्वारा संकेतके आधीन ही पदार्थका प्रकाशक मानना चाहिये ।
अब इन बातों पर क्रमशः विचार करते हैं
१ :
तत
आगम में २३ प्रकारको वर्गणाएँ बतलाई है। उनमें भाषा वर्गाका स्वतंत्र रूप से उल्लेख किया गया वितत आदि से अनक्षारात्मक या अक्षरात्मक जितने भी शब्द सुनने में आते हैं उन सब शब्दों की उत्पति एकमात्र भाषा वर्गणाओंसे होती है । यह नहीं हो सकता कि कोई भी पुरुष अपने तालु आदिके व्यापार द्वारा ऐसी पुद्गल वर्गणाओं को भी शब्दरूप परिणमा सके जो भाषावगणारूप नहीं है। पुरुषोंके तालु आदि व्यापारसे भाषावर्गणाओं की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु जो भाषा वर्गणाएँ स्वयं उपादान होकर शब्दरूप परिणत होती है उनमें पुरुषोंके तालु आदिका व्यापार निमितमात्र है, क्योंकि बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता में कार्यको उत्पत्ति होती है यह कार्यकारणभावको प्रगट करनेवाला अकाट्य सिद्धान्त हैं, जो कि भाषा वर्गणाओंके शब्दरूप कार्यके होने में भी लागू होता है, क्योंकि कोई भी कार्य इस सिद्धान्तको उलंघन कर होता हो ऐसा नहीं है । ऐसी अवस्था में जब विवक्षित शब्दों का उत्पत्ति ही केवल पुरुष व्यापार से नहीं होती तो उनमें पदार्थोंको अर्थप्रतिपादकता केवल पुरुषव्यापारसे आती हो यह त्रिकालमें सम्भव नहीं है। जो व्यक्ति निश्चय पक्षका उलङ्घन कर केवल व्यवहार पक्षके एकान्तका ही परिग्रह करता है वही ऐसा कह सकता है कि 'शब्द और पदार्थको अर्थप्रतिपादकता कृत्रिम है, इसलिए वह पुरुषके व्यापारकी अपेक्षा रखती है।' अन्य व्यक्ति नहीं । उपादानरूप शब्दवर्गणाओं में विवक्षित अर्थप्रतिपादनको योग्यता न हो और कोई पुरुष अपने व्यापार द्वारा बेसी अर्थप्रतिपादन क्षमता उत्पन्न करदे यह कभी भी नहीं हो सकता। भगवान् पुष्पदन्त भूतबलि शब्दगत इस सहज योग्यताका प्रतिपादन करते हुए धवला पु० १४ पृ० ५५० में लिखते हैं
सच्चभासाए मोसभासाए सच्चमोसभासाए असम्षमोसमासाए जाणिदव्वाणि वेसण सच्चभासता मोसभासत्ताए सच्चमोसभासत्ता असच्चमो सभासत्तार परिणामेण णिस्सारंति जीवा वाणि भासादब्बवग्गणा णाम ॥ ७४४ ॥