SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सका समाधान सम्बन्ध माना गया है। फिर भी विकायके अभावमें ववनयोगको भी हैकर्ता कहना उचित नहीं है, क्योंकि वचनयोगको हेतुका मान लेने पर जब-जब वचन योग हो तब-तब दिम्ययन होनो ही चाहिए, अन्यथा बधनयोगके साथ दिव्यध्वनिको बाद्य व्याप्ति नहीं बन सकती 1 स्पष्ट है कि दिव्यघ्ननि अपने काल में होतो है और प्रचनयोग उसका मुख्य निमित्त है, साथ ही भय जीवांका पुण्योदय, तीर्थकर प्रकृतिका उदय आदि भी दिव्यध्वनिके निमित्त है । ऐसा अपूर्व योग जिनदेखकेसियालज्ञान विभूतिसे सम्पन्न होने पर ही मिलता है, इसलिए दिव्यध्वनिके होने में जिनदेवको भी निमित्त कहा जाता है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि जिनदेव स्वयं अन्य अल्पज्ञों के समान दिव्यध्वनिको प्रगट करनेके लिए व्यापारवान होते है। श्री गोम्मटसार जीवकाण्डमें लिखा है मणसहियाणं वयणं दिटुं तप्पुब्धमिदि सजोगसि । उत्ती मणोषयारेणिदियणाणेण हीणम्हि ॥ २२८ ।। मनसहित छद्मस्थ जोवोंके वचन मनपूर्वक देखे जाते हैं, इसलिए इन्द्रियज्ञानसे रहित सयंगकेयली फे उपचारसे मन कहा है ।। २२८ ।। ___ स्पष्ट गात तामि . दिति के लिए दत्तावधान हुए बिना ही अपने कालमें बचनयोग आदिको निमिस कर दिव्यध्वनि प्रकट होती है। पं० प्रबर दौलतरामजी 'सकलन यज्ञायक-' आदि स्तुति द्वारा उक्त तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं भवि भागनि-वचिजोगे घसाय । तुम धुनि है सुनि विभ्रम नसाय ॥ (२) दूसरा कारण यह है कि केवलो जिनके दो प्रकारका ही परनयोग होता है-सत्य वचनयोग और अनुभय वचनयोग । इसी प्रकार दिव्यध्वनि भी तदनुसार सत्य और अनुभयके भेषसे दो प्रकारको होतो है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि दिव्यध्वनिका प्रमुख निमित्त योगको ही स्वीकार किया है। यदि केवलज्ञान दिव्यध्वनिका प्रमुख निमित्त होता तो जिप्त प्रकार केवलज्ञान एकमात्र सत्यहा स्वीकार किया गया है उसी प्रकार दिव्यध्यान भी केवलज्ञानके समान एक ही प्रकारको होती, किन्तु ऐसा नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि केवली जिनका वचनयोग ही दिव्यध्वनिके खिरनेमें प्रमख निमित्त है। २. दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता मूल प्रवन में प्रमुसहपसे दूसरा चर्चनीय विषय दिमावनिकी प्रामाणिकताके विषय में कदापोह करना है। अपर पक्षने अपनी प्रतिशंका २ और प्रतिशंका ३ में दिव्यध्यमिकी प्रामाणिकता बक्ताको प्रामाणिकताके आधार पर स्थापित की है। साथ ही दाब्दों, पदों और वाक्योंको कृत्रिम बसलाते हुए लिखा है कि 'शब्द और पदार्थको अर्थ प्रतिपादकता कुत्रिम है, इसलिए वह पुरुषके व्यापारको अपेक्षा रखती है। अर्थात् शब्द ऐसा नहीं कहते कि हमारा यह अर्थ है या नहीं है, किन्तु पुरुषों द्वारा ही शब्दोंका अर्थ संकेत किया जाता है। इसीलिए लौकिक या आगम शब्दोंको सहज योग्यता परुपोंके द्वारा संकेतके आधीन ही पदार्थका प्रकाशक मानना चाहिये, बिना संकेतके शब्द पदार्थका प्रतिपादक नहीं होता। -प्रमेयकमलमार्तण्ड १० ४३१ । व्याख्याताके बिना वेद स्वयं अपने विषयका प्रतिपादक नहीं है, इसलिए उसका वाध्य-वाचकभाव व्याख्याताके माधीन है। -धवल पु०११० १९६। जब शब्दोंके द्वारा पदार्थको प्रकाशवताही पुरुष व्यापारकी अपेक्षा
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy