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________________ ७९६ जयपुर ( सानिया ) तत्त्वचर्चा शुभोपयोगकी बहुलता है । परन्तु किसी काल में उनके भी शुद्धोपयोग होता है, ऐसा आगम है। इसो तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन प्रवचनसार गाथा २४८ की टी काम लिखते हैं ननु शुभोपयोगिनामपि कापि कामे शुद्धोपयोगभावना दृश्यते, शुद्धोपयोगिमामपि कापि काले शुभोपयोगभाबना इश्यते । श्रावकाणामपि साभाथिकादिकाले शुद्धमावना दृश्यते। तेषां कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति ? परिहारमाह-युक्तमुक्तं भवता परं किन्तु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन वर्तन्ते, यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावनां कुर्वन्ति तथापि शुमोपयोगिन पत्र भण्यन्ते । ग्रेऽपि शुद्धोपयोगिनस्ते यधपि कापि काले शुभोपयोगेन वर्तन्ते तथापि शुद्धोपयोगिन एव । फस्मान ' बहुपदम्य प्रधानत्वादानवननिम्बवनवदिति । शंका-शुभोपयोगवाले जीवों के भी किसी समय शुद्धोपयोगभावना देवी जाती है। इसी प्रकार शक्षोपयोगी जीवोंके भी किसी समय शुखोपयोगभावना देखी जाती है। श्रावकोंके भी सामायिक आदिके कालमें शुद्ध भावना देखी आती है । इनका विशेष भेद कैसे ज्ञात होता है ? समाधान-आपने ठोक कहा है, किन्तु इतनी विशेषता है कि जो बहुलतासे शुमोपयोगके साथ वर्तते है वे सद्यपि किसी समय शुशोपयोगरूप भावनाको करते हैं तो भी शुभोपयोगी ही कहे जाते है और जो शुद्धोपयोगी हैं वे यद्यपि किसी समय शुभोपयोगके साथ वर्तते हैं तो भो शुद्धोपयोगी ही हैं, क्योंकि इसमें आम्रवन और निम्बबनके समान बहुपदको प्रधानता है। बामार्य जयसेनके इस कथनसे यह बात तो स्पष्ट हई कि उन्होंने इसो परमागमको स्वों मायाकी में धावकोंके जो मात्र शुभोपयोग बतलाया है वह बहलताको अपेक्षा बहपद वक्तव्य होनेसे हो बतलाया है । वैसे सम्यग्दष्टि और श्रावक जब अपने ज्ञायकस्वभाव नामाके लक्ष्यसे उपयोगस्वभावरूपसे परिणमते है तब उनके भी शुद्धोपयोग होता है। उक्त आगमका भी यही आशय है । शुद्धोपयोग उनके होता ही नहीं ऐसा आगमका आशय नहीं है। अपर पक्षने लिखा है कि 'चौधे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शनाप शुद्धभाव है और कषायरूप अशुद्धभाव है, इन दोनों शुद्धाशुद्ध भावोंके मिश्रित भावरूप शुभोपयोग कहा है। इसी प्रकार यथासम्भव पाठवें, छठे गुणस्थान में भी मही शुद्धाशुद्ध मिश्रित भावरूप गुभोपयोग जानना चाहिये।' अपने इस कथन की पुष्टिमें उसका तक यह है कि 'यदि शुभोपयोगको शुद्धाशुद्धभावरूप न माना जागा तो शुभोपयोग मोक्षका कारण नहीं हो सकेगा।' अपने इस कथनकी पुष्टि में उस पक्षने प्रवचनसार गाथा २५४ की आचार्य अमृत चन्द्रकृत टीकाका 'गृहिणो तु समस्त एष' इत्यादि वचन उद्धत किया है। अब यहां दो दातोंका विचार करना है। प्रथम तो यह देखना है कि दामोपयोग कहते किसे है ? और दूसरे 'गृहिणां तु समस्त' इत्यादि टीका वचनका भी विचार करना है? १. इस जीवके चौथे गुणस्थानसे सम्यग्दर्शन होनेपर भी कषायका सद्भाव १० वें मुणस्थानतक बराबर पाया जाता है, इसलिए अपर पक्षने जो इन दोनों शुद्धाशुद्धभावोंके मिश्चितरूप उपयोगको शुभोपयोग कहा है वह ठीक नहीं है। किन्तु जिस समय उपयोग स्वभाववाले इस जीव का महंदादिको भक्तिरूप परिणाम होता है, प्रवचनरस जीवांके प्रति वात्सल्य भाव होता है, अपनेसे गुणोंमें अधिक श्रमणोंको देखकर खड़ा होने, अनुगमन करने, प्रणाम-विनय आदि करने का भाव होता है, सम्यग्दर्शन और सम्पज्ञान के उपदेशका भाव होता है, शिष्योंको स्वीकार करने और उन्हें सम्यग्दर्शनादि गुणांस पष्ट करनेका भाव होता है तथा अशुभका निवारण करने के अभिप्रायसे अहिंसादि नतोको सम्यक प्रकारसे पालनेका अभिप्राय होता है तब इस
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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