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________________ शंका १६ और समका समाधान १. कोई देव-शास्त्र-गुरुकी घद्धा-भक्ति-पूजाका छोड़कर कुदेवादि व शासनदेवता आदि रागी देवादिककी असा-भक्ति-पजा स्नमें भी नहीं करता। २. मय-मांस-मधु आदिका सेवन नहीं करता। ३. धर्म के नामपर एकेन्द्रियादि जोत्रों-तकको किसी भी प्रकारको हिसाको स्वप्न में भी प्रश्रय नहीं देता। ४. वीतराग देवको उपासना, पीतराग भावये प्रति श्रद्धावान होकर को जानेपर ही यथार्थ उपासना मानता है। ___इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि के प्रशम, रांवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि जितने भी बाह्य लक्षण है वै जिसमें पूरी तरह से घटित होते है और जो निरन्तर अतीन्द्रिय आत्मसुखके बेइनकी हो यथार्थ लाम मानता है उसके व्यवहार धर्मरूप इस बाझ लक्षणसे साध्यभूत निश्चयका ज्ञान होता है। यही कारण है कि आगममें व्यवहार धर्मको व्यवहार साधन और निश्चय धर्मको साध्य कहा है। इस द्वारा उस एकान्त मिश्चयाभासीका परिहार किया गया है जो मड़ेके समान अनिमोलित लोचन वाला बन तथा कुछ भी चिन्ता मग्न होकर इच्छानुसार वर्तता है और प्रमादो होकर बाह्य क्रियाकाण्डसे सर्वदा विरत रहता है। आचार्य कहते हैं कि बाह्य क्रियाकाण्डसे निश्चय की प्राप्ति नहीं होती यह जहाँ सच है, वहाँ भूमिकानुसार यथाविधि बाह्य क्रियाकाण्ड होना ही चाहिए । अन्यथा यही समझना चाहिए कि इसे परमार्थस्वरूप निश्चयकी प्राप्ति नहीं हुई है। ___ 'भूमिकानुसार यथाविधि वाह्य क्रियाकाण्ड होना हो चाहिये।' इसका आशय यह है कि चौथे, पांचवें और छठे गगस्थानवालेका जितना और जिस विधिमे आगममें क्रियाकाण्मु बतलाया है उतना और उस विधिसे उस गुणस्थानवालेका बाह्य-क्रियाकाण्ड नियमसे होता है। इसमे अपवाद नहों 1 चोथे कालका बाह्य-क्रियाकाण्ड दूसरे प्रकारका हो और पांचवें कालका बाहा-क्रियाकाण्ड कोई दूसरे प्रकारका हो ऐमा नहीं है। जैसे उस गुणस्थानका अन्तरंग निश्चयधर्म एक प्रकार का है वैसे हो बहिरंग व्यवहारधर्म भी तदनुकूल एक प्रकारका है। ऐसा होनेपर ही इनमें उक्त प्रकारसे व्यवहारतबसे साम-माधन भाव बन सकता है, अन्यथा नहीं। आवार्य कहते हैं कि यह तो है कि वाह्य-क्रियाकाण्ड शास्त्रोक्त विधि भी हो, परन्तु अन्तरंग निश्चयधर्म उसके न हो। पर यह नहीं है कि अन्तरंग निश्चमधर्म तो हो पर उसका साधगभूत ( ज्ञान करानेवाला) बाह्म क्रियाकाण्ड शास्त्रोक्तविधिसे उसके ने ही। यह आगविधि है । सम्यष्टि इसे यथावत् जानता है। स्पष्ट है कि इस वचन द्वारा अन्तरंग-बहिरंग दोनोंकी मर्यादाका ज्ञान कराया गया है। सम्यग्दृष्टि ऐमो मर्यादाको जानकर वर्तता है तभी वह अविरतसम्यग्दृष्ट कहलाने का पात्र है। इस प्रकार साध्य-साधनभावका आपाय क्या है, इसका संक्षेप में सष्टीकरण किया। इसपर विशद प्रकाश समयसार गाथा से पड़ता है। अपर पक्ष उम और दृष्टिपान करके माप-साधनभाव का आशय क्या है इसे समझने की कृपा करे यह निवेदन है। १६. उपयोग विचार अपर पक्ष ने प्रवचनसार मा०६ की टीकाके आधारसे अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयंग इस प्रकार जो इन तीन भेदोंका निर्देश किया है वह ठोक है। इतनी विशेषता है कि शावकों के यद्यपि
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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