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जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा
वास्तविक हेतु नहीं, फिर भी अमुक प्रकारके व्यवहार धर्मके सद्भाव में अमुक प्रकारका निश्चयधर्म होता है यह देख कर उसे निश्चयधर्मका उपचार हेतु कहा गया है। पंचास्तिकाय गाथा १६० व १६१ को टीकामें इसो तथ्यको ध्यान में रख कर व्यवहार मोक्ष मार्गको साधन और निश्चयमोक्षमार्गको साध्य कहा गया है ।
अपर पक्षका कहना है कि दुश्यसंग्रह गाथा १३ की टीका में यह कहा है कि 'जो निश्चय व व्यवहारको साध्य-साधनरूपसे स्वीकार करता है वह सम्यग्दृष्टि है ।' किन्तु उक्त टीका में क्या कहा गया है यह यहाँ दे देना चाहते है । यथा-
स्वाभाविकानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं निजपरमात्मत्रच्यमुपादेयं इन्द्रियसुखादिपर हि हेयमि सर्वप्रणीत निश्चय व्यवहारनयसाध्य - सावकभावेन मम्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशकोधादि • द्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करषद । त्मनिन्द्रासहितः सन्निन्द्रियसुखमनुमवतीस्यविरतसभ्यग्दष्टेर्लक्षणम् ।
जो स्वाभाविक अनन्त ज्ञान आदि अनन्त गुणोंका आधारभूत निज परमात्मद्रश्य उपादेव है तथा इन्द्रियसुख आदि पर द्रव्य त्याज्य है। इस तरह सर्वज्ञ देव प्रणोत निश्चय व व्यवहारनयको साध्य-साधक मात्र मानता है । परन्तु भूमिकी रेखा के समान क्रोध आदि द्वितीय कषायके उदयसे मारने के लिए कोतवालके द्वारा पकड़े गये चोरकी भाँति मात्मनिन्दा सहित होकर इन्द्रिय सुखकर अनुभव करता है वह अविरत सम्यग्दृष्टिका लक्षण है।
।
यह
व्यसंग्रह
का वचन है, विके आधार से अपर पक्षने आगे पोछेका सन्दर्भ छोड़कर पूर्वोक्त वाक्यकी रचना की है। इसमें विकाली ज्ञायकस्वभाव आत्माको निज द्रव्य बतलाकर उसमें सम्यग्दृष्टिके उपादेय बुद्धि होती है और इन्द्रिय सुखादिको परद्रव्व बतलाकर उसमें सम्यग्दृष्टि बुद्धि होती है। इस विधि से जो वह सम्यग्दृष्टि है उसके लिए यहाँ ऐसा बतलाया गया है कि वह अर्हत्सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय व्यवहारनयको माध्य-साधकभावसे मानता है। इससे यह तथ्य फलित होता है-
१. सम्यग्दृष्टि ज्ञानादि अनन्त गुणांके आधारभूत निज परमात्मद्रव्य ( त्रिकाली विकारस्वरूप ज्ञायक आत्मा ) को मात्र उपादेय मानता है और इसके सिवा अन्य इन्द्रिय सुख आदिको परद्रव्य समझकर हे मानता है। और इस प्रकार देव उपादेयरूपसे इन दोनों में साध्य साधक भाव मानता है
यह तथ्य हैं जो उक्त कथनसे सुतरां फलित होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता कि सम्यग्दृष्टि जो निश्चयको साध्य और व्यवहारको साधन मानता है वह इस रूपमें नहीं मानता कि व्यवहार करते-करते उससे निश्चयकी प्राप्ति हो जाती है। किन्तु वह यह अच्छी तरह से समझता है कि निश्वयस्वरूप मोक्षकी प्राप्तिनिश्चय रत्नत्रयको समग्रता के होनेपर हो होतो हूं, मात्र व्यवहार धर्मके झालम्बन द्वारा विकल्परूप म रहने से नहीं होती। साथ ही साथ वह यह भी अच्छी तरहसे समझता है कि इसके पूर्व जितने अंश में रत्न की प्राप्ति होती है वह मो निर्विकल्प ज्ञायक स्वरूप आत्मा के अयलम्बनसे तन्मय परिणमन द्वारा ही होती है, व्यवहार धर्मका अवलम्बनकर उसमें अटके रहने से नहीं होती। व्यवहार धर्म के होते हुए भी वह इन्द्रिय सुखके समान परमार्थसे है हेय हो । सम्यग्दृष्टि वर्तता है तब निश्चय व्यवहारनयनं साध्यसाधनभाव सुघटित होता है, कि साम्यभूत जो निश्चय है उसके ज्ञान करानेका हेतु व्यवहारलय है । यथा
सविकल्प दशा में प्रवृत्ति
ऐसो यथार्थ श्रद्धापूर्वक जब अन्यथा नहीं। वह ऐसे