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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा अनुपचरितास तव्यवहारेण ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मणां आदिशब्देनौदारिफयक्रियिकाहारकारीरत्रयाहारादिषटपर्याप्तियोग्यपुदगलपिण्डरूपनोकमणी तथषोपचरितासदभूतम्यवहारेण बहिर्विषयघट-पदादीनां व कसो भवति ।
-बृहद्व्यसंग्रह गाथा ८ टीका अधं-यह जीव अनुपचारित असदभूत व्यवहारकी अपेक्षा जापानरणादि प्रव्यव मोका, आदि शब्दसे औदारिक, क्रियिक और आहारकरून तीन शरीर और आहार आदि छत पर्याप्तियांके योग्य पदगल नि रूप नोकर्मोंका तथा उपचरित असद्भुत व्यवहारमयकी अपेक्षा बाह्य विषय घट-पट आदिका का होता है।
कार्य-कारणपरम्पराकी यह सम्यक व्यवस्था होने पर भी यह संसारी प्राणी अपने विकल्पोंके अनुसार नाना प्रकारको तर्कणाएं किया करता है और उन्हें ही प्रमाण मान कर कार्यकारणपरम्पराको व्यवस्था बनाता है। प्रकृतमें यह तो कहा नहीं जाता कि प्रत्येक द्रव्यकी जो विभावपर्याय होती है वह निमित्तके अमावमें होती है। जब प्रत्येक द्रव्य सदरूप है और उसको उत्पाद-व्यय प्रौदास्वभाववाला माना गया है ऐसी अवस्था में उसके उत्पाद-व्ययको अन्य द्रव्यके कर्तत्व पर छोड़ दिपा जाए और यह मान लिया जाए कि अन्य द्रव्य जब चाहे अममें किसी भी कार्यको उत्पन्न कर सकता है उसके स्वतन्त्र सतस्वभाव पर आपात है। ऐसी स्थिति में हमें तो यह कार्य-कारणकी विढम्बनापूर्ण व्यवस्था आगमके प्रतिकूल ही प्रतीत होती है। जाचार्याने प्रत्येक कार्यमें अपने उपादानके साथ मात्र आभ्यन्तर व्याप्ति और निमित्तोंने साथ बाह्य व्याप्ति स्पष्ट शब्दों में स्वीकार की है। इसलिए पूर्वोक्त प्रमाणीके आधारसे ऐसा ही निर्णय करना चाहिए कि ट्रव्य अन्वयी होनेसे जो नित्य है उसी प्रकार व्यतिरेकस्यभाववाला होनसे प्रत्येक समय वह उत्पाद-व्ययस्वभाववाला भी है। बतएव प्रत्येक समयमें यह कार्यका उपादान भी है और कार्य भी है। पिछली पर्यायकी अपेक्षा जहाँ वह कार्य है अगली पर्यायके लिए यहाँ वह उपादान भी है और इस प्रकार रास्तानझमकी अपेक्षा प्रत्येक समय में उसे ( कार्य-कारणकी अपेक्षा) उभयरूप प्राप्त होने के कारण निमित्त भी प्रत्येक समय में उसी क्रमसे मिलते रहते हैं। कहीं उनकी प्राप्तिमें पुरुषका योग और रागभाव निमित्त पड़ता है और वहीं वे विससा मिलते हैं। पर उस समय में नियत उपादानके अनुसार होनेवाले नियत कार्योंके नियत निमित्त मिलते अवश्य ' हैं। इसलिए विविध लौकिक उदाहरणोंको उपस्थितकर जो अपनी चित्तवृत्ति के अनुसार कार्य-कारणपरम्परा
को बिठानेका प्रयत्न किया जाता है वह यक्ति-युक्त नहीं है और न आगमसंगत है। इसी तथ्यको लक्ष्य में रखकर आचार्य अमृतचन्द्र समयसारकलशमें बहते हैं
आसंसारस एवं पात्रति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकैः दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः । तद्भुसार्थपरिग्रहेण विलयं यचं कबारं प्रजे
तस्किं ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः ॥५॥ अर्थ-इस जगतमें मोही जीवोंका 'परद्रव्यको मैं करता हूँ' ऐसा पर द्रव्यके वर्तृत्वके महा अहंकाररूप दुनिवार अज्ञान अन्धकार अनादि संसारसे चला आ रहा है। आचार्य करते हैं कि अहो! परमार्थ नयका अर्थात शुद्ध द्रव्याथिक अभेदनयका ग्रहण करनेसे यदि वह ( मोह ) एक बार भी नाशको प्राप्त हो तो ज्ञानघन आत्माको पुनः बन्धन कैसे हो सकता है।
-पृ० १५६, बलश ५५ आगमके अनुसार कार्य-कारणपरम्पराकी यह निश्चित स्थिति है। स्वामो समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें