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शंका ६ और उसका समाधान अच्चोच्यते-शक्तिनित्याऽमिस्या येत्यादि । तत्र किमयं द्रव्यशको पर्याय वा प्रश्नः स्यात्, भावानां वन्य-पर्यायशक्तवारमकवान् । तत्र ग्यशक्लिनिस्यैव, अनादिनिधनस्वभावाद अन्यस्य । पर्यायशक्तिस्वनित्यैव, सादिपर्यवसानरबास पर्यायाणाम् । न च शनि स्यस्वे सहकारिकारणानपेक्षयवार्थस्य कार्यकारिस्थानुषंगः, द्रव्यशक्तः केवलायाः कार्यकारिवानभ्युपगमात । पर्यायशक्तिसमन्विता हि द्रव्यशक्कि कार्यकारिणी, विशिष्टपर्यायपरिणतस्यैष द्रव्यस्य कार्यकारिरवप्रातः । तत्परिणतिश्चास्य सहकारिकारणापेक्षया इति पर्यायशास्तदैव भावाम सर्वदा कार्योत्पमित्र संगः सहकारिकारणापेक्षावग्रयं वा।
-प्रमेयकमलमातण्ड २, पृ० १४७ और जो यह कहा जाता है कि शक्ति नित्य है कि अनित्य है इत्यादि । सो यहाँ था यह द्रव्यक्ति या पर्यायशक्ति के विषय में प्रश्न है, क्योंकि पदार्थ प-पर्याय शक्तिस्वरूप होते हैं। उनमें से द्रव्यशक्ति नित्य ही है, क्योंकि द्रव्य अनादिनिधन स्वभाववाला होता है। पर्यायशक्ति तो अनित्य ही है, क्योंकि पर्वाय सादिसान्त होती है। यदि कहा जा सक्सि विप है, इसलि सहकारी कारणों की अपेक्षा किये बिना ही कार्यकारीपनेका प्रसंग आ जाएमा सो ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल द्रव्यशक्तिका कार्यकारीपना नहीं रोकार किया गया है। किन्तु पर्यायशक्तिसे यक्त भ्रमशक्ति कार्य करने में समर्थ होतो है, नयोंकि विशिष्ट पर्यायसे परिणत द्रम्पका ही कार्यकारीपना प्रतीत होता है और उसकी परिणति सहकारी कारणसापेक्ष होती है, क्योंकि पर्यायशक्ति तभी होती है, इसलिए न तो सर्वदा कार्यकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है और न ही सहकारी कारणोंको अपेक्षाको व्यर्थता प्राप्त होती है।
इरा प्रकार यह ज्ञात हो जाने पर कि सहकारी कारण सापेन विशिष्ट पर्यायशसि से युक्त द्रव्यशक्ति ही कार्यकारिणी मानी गई है, केवल उदासोन या प्रेरक निमित्तों के बलपर मात्र द्रव्यशक्तिसे हो त्यो कार्य नहीं होगा ! यदि द्रव्यशक्तिको बाह्य निमित्तोंके बलसे कार्यकारी मान लिया जाए तो उनसे भी गेहको उत्पत्ति होने लगे, क्योंकि गेहूँ स्वयं द्रव्य नहीं है, किन्तु यह पुद्गलाको एक पर्याय है, अतएव गेहूँ पर्याय विशिष्ट पुद्गलद्रव्य बाह्य कारणसापेक्ष गेहूक अंकुगदि कार्यरूपसे परिणत होता है। यदि विशिष्ट पर्यायरहित दन्य सामान्यसे निमित्तोंके बल पर गेहूँ अंकुरादि पर्यावोंकी उत्पत्ति मान ली जाए तो जो पुद्गल चनारूप है वे पुद्गल होनेसे उनसे भी गहरूप पर्यायको उत्पत्ति होने लगेगी, इसलिए ओ विविध लौकिक प्रमाण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया जाता है कि जब जैसे प्रबल निमित्त मिलते हैं तब द्रश्यको निमितोंके अनुसार परिणमना ही पड़ता है सो यह कथन आगमानुकूल न होनेसे संगत नहीं प्रतीत होता । वास्तवमें मुख्य विवाद उपादानका है. उनका जो समीचीन अर्थ शास्त्रों में दिया है उस पर सम्यक दृष्टिपात न करनेसे ही यह विवाद बना हुआ है । यदि आगमानुसार विशिष्ट पर्यायशक्तियक्त द्रव्यशक्तिको अन्तरंग .कारण अर्थात उपादान कारण स्वीकार कर कार्य-कारणको आवस्था की जाए तो कोई विवाद हो न रह जाए, क्योंकि यथार्थ जब-जब विवक्षित कार्यके योग्य विशिष्ट पर्यायशक्तिसे युक्त द्रव्यशक्ति होती है तब-तब उस कार्यके अनुकूल निमित्त मिलते ही है। कार्यम उपादानकारण मुख्य है, इसलिए उपादानकारणका स्थकाल प्राप्त होने पर कार्यके अनुकुल निमित्त मिलते ही है ऐसा नियम है और ऐसा है नहीं कि निश्चय उपादान हो और निमिस न मिलें । इसी बातको असद्भूत व्यवहार नयकी अपेक्षा यों कहा जाता है कि जब जैसे निमित्त मिलते है तब वैसा कार्य होता है ।
निमित्त कारणको कार्यकारी कहना असदभूत व्यवहार नयका विषय है यह हमारा ही कहना हो ऐसा नहीं है, किन्तु आगममें इसे इसी रूपमें स्वीकार किया गया है । यथा--
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