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________________ ३८४ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा यत: सत्स्वपि दण्डादिनिमितेषु शर्करादिप्रचितो मृत्पिण्डः स्वयमन्तघंटभवनपरिणामनिरुत्सुत्बाश्च वटीमवति, अतो मृपिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्तसापेक्ष अभ्यन्सरपरिणामसानिध्याद् घटो भवति न दण्डादयः इति दण्डादीनां सिमिसात्वन : अर्थ-जैसे मिट्टी के स्वयं भीतरसे घटके होने रूप परिणामके सन्मुख होनेपर दण्ड, चक्र और पौरुषेय प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते है, क्योंकि दण्डादि निमित्तोंके रहने पर भी बालकाबहुल मिट्टी का पिर स्वयं भीतर से घटके होनेरूप परिणाम ( पर्याय ) से निरुत्सुक होनेके (घट पर्याय रूप परिणमनके सन्मुख न होने के ) कारण घट नहीं होता, अत: बाह्य में दण्डादि निमित्त सापेश मिट्टीका पिण्ड ही भीतर घट होनेरूप परिणामका सानिध्य होनेसे घट होता है, दण्डादि घट नहीं होते, इमलिए दण्डादि निमित्तमात्र हैं। यह प्रेरक निमित्तोंकी निमित्तताका स्पष्टीकरण है। इस उल्लेख में बहुत हो समर्थ शब्दों वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि न तो सब प्रकारको मिट्टी ही घटका उपादान है और न हो पिण्ड, स्थास, कोश और कुसुलादि पर्यायोंको अवस्थारूपसे परिणत मिट्टो घटका उपादान है, किन्तु जो मिट्टी अनन्तर समयमें घट पाययरूपसे परिणत होनेवाली है मात्र वही मिट्टो घटपर्यापका उपादान है। यही तथ्य राजवातिकके उक्त उल्लेख्य द्वारा स्पष्ट किया गया है। मिट्टीवी ऐसी अवस्थाके प्राप्त होने पर वह नियमसे घटका उगाधान बनती है। यही कारण है कि तत्वार्थवातिकके उक्त उल्लेख द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जब मिठो घट पर्यापके परिणमनके सम्मुख होता है तब दण्ड, चक्र और पौरुषेष प्रयत्नको निमित्तता स्वीकृत की गई है, अन्य कालमें वे निमित्त नहीं स्वीकार किए गये हैं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड में लिखा है कि ग्राहकप्रमाणाभावाच्छक्तेरभाषः अतीन्द्रियत्वादा? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः, कार्यान्यथानुपपत्तिजनितानुमानस्यैव सग्राहकस्वात् । ननु सामन्यधीनोन्पत्तिकत्वाप्त कार्याणां कथं तदन्यथानुपपत्तिः यतोऽनुमानात्तस्मिद्धिः स्यात् इत्यसमीचीनम् , यतो नास्माभिः सामयाः कार्यकारिवं प्रतिविध्यते। किन्तु प्रतिनियतामा सामध्याः प्रतिनियतकार्यकारित्वं अतीन्द्रियशक्तिसद्भावमन्तरेणासम्भाग्यमित्यसाचप्यभ्युपगन्तव्या। -प्रमयक्रमलमार्तण्ड २,२, पृ० १९७ अर्थ-ज्या ग्राहक प्रमाणका अभाव होनेसे शक्तिका अभाव है या अतीन्द्रियपना होनेसे ? इसमेसे प्रथम पक्ष युक्त नहीं है, क्योंकि कार्योको उत्पत्ति अन्यथा नहीं हो सकती इस हेतुसे अनित अनुमान हो उसका ( कार्यकारिणी शक्तिका ) ग्राहक है । शंका-कार्योंकी उत्पत्ति सामग्नीके अधीन होनेसे शक्तिके अभाव जो कार्योंकी उत्पत्तिका अभाव स्वीकार किया है वह कैसे बन सकता है, जिससे कि अनुमान द्वारा शक्तिको सिद्धि की जा सके ? समाधान-यह ठीक नहीं है, क्योंकि हम सामग्रीफे कार्यकारीफ्नका निषेध नहीं करते, किन्नु अत्तीन्द्रिय शक्तिके सद्भावके बिना प्रतिनियत सामग्रीसे प्रतिनियत कार्यको उत्पत्ति असम्भव है, इसलिए अतीन्द्रिय शक्तिको भो स्वीकार करना चाहिए। यहाँ प्रश्न होता है कि वह अतीन्द्रिय शक्ति क्या है जिसके सद्भाव में ही कार्योंकी उत्पत्ति होती है ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए वहाँ पुनः लिखा है
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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