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जयपुर (खानिया ) सत्वपर्धा
निमित्त भी उपादानकी ही तरह वास्तविक है, उपयोगी है, काल्पनिक या अनुपयोगी नहीं है, वह उपचरित या आरोपित भी नहीं है, इत्यादि आवश्यक बातों पर प्रश्न १७ में प्रकाश डाला जायगा । वहाँसे देखिये।
नोट-इस विषयमें प्रश्न नं० १, ५, ६ और १७ देखिये तथा इनके प्रत्येक दौरका विषय भी देखिये।
मंगल भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुदार्थो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
शंका ११ मूल प्रश्न ११–परिणमनके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय दो भेद हैं, उनमें यास्तविक अन्तर क्या है?
प्रतिशंका ३ का समाधान इस प्रश्नके प्रथम उत्तर में समाधान करते हुए बतलाया गया था कि स्वभावपर्याय और यिभावपर्यायके भेदसे पर्याय दो प्रकारको होती है। स्व-प्रत्यय पर्यायों का नाम हो स्वभाव पर्याय है और स्व-परप्रत्यय पर्यायोकोही विभाव पर्याय कहते हैं। साथ ही इनमेंसे किस ख्यमें दोनों या एक कौन-कौन पर्याय किस प्रकार होती है इसका स्पष्टीकरण करते हए समर्थन में प्रवचनसार गाया ६३ को टीका उपस्थित की गई यो। अन्समें यह भी बलला दिया गया था कि "जिस प्रकार स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति में कालादि द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायें ययायोग्य आश्रगनिमित्त होती है उसी प्रकार प्रत्यय पर्यायोंको उत्पत्तिमें भी कालादि द्रव्योंकी विवक्षित पर्याय यथायोग्य माधयनिमित्त होती है। वे साधारण-निमित्त है, इसलिए उनकी दोनों स्थलोंमें कथनकी अविवक्षा है । यही इन दोनों में भेद है? ऐसा लिखनेका हमारा आश्रय यह था कि 'स्वप्रत्यय' शब्द में आया हुआ 'स्व' शब्द अपने उपादानको सूचित करता है और स्व-परप्रत्यय पदमें आया हुआ 'स्व' शब्द अपने उपादानको तथा 'पर' शब्द अपने असाधारण ( विशेष ) निमित्तोंको सूचित करता है।
इतना स्पष्ट निर्देश करनेपर भी प्रतिशंका २ में एक तो ३ प्रकारकी पर्यायांकी स्थापना करके अनन्त अगलय गणद्वारा द्रव्योंको प्रतिसमय प्रयतमान षडगण-हानि-वद्धिरूप पर्याय मात्र स्व.प्रत्यय स्वीकार की गई है । इनके होनेमें एकान्तरूपसे मात्र निश्चय ( उपादान ) पक्षको ही स्वीकार किया गया है और व्यवहार ( उपचार ) पक्षको तिलाऊजलि दे दी गई है । जब कि प्रत्येक निश्वयका तदनुकूल व्यवहार अविनाभावरूपसे होता हो है ऐसा आगमका अभिप्राय है। स्वामी समन्तभद्र के बचनानुसार चाहे वह स्वभावकार्य हो और चाहे विभावकार्य, दोनोंमें बाह्य और बाभ्यन्तर सपाधिको समग्रता तभी बन सकती है जब कात्पित्तिमें उपादान और व्यवहार हेतु दान की सम व्याप्ति स्वीकार को जाये ।-देखिये स्वयंभस्तोत्र श्लोक ६०।