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________________ शंका ११ और उसका समाधान ट्सरे मागममें सर्वत्र स्वभावपर्यायौंको स्व-प्रत्ययरूषसे ही उल्लिखित किया गया है। फिर भी उसका विचार किये बिना प्रतिशका २ में अनन्त अगम्लघु गणरूपसे प्रवतमान षड़गणहानि-वृदिरूप पर्यावोंके सिवाय अन्य समस्त स्वभावपर्यायोंको स्वपरप्रत्यय सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। तथा इनके अनेक माम भी गिनाये गये हैं। इस प्रकार प्रतिशंका २ में स्वभावपर्यायोंको दो भागों में विभक्त कर दिया गया है, जब कि आगममें स्वभावपर्यायों के उक्त प्रकार से दो भेदोंका उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। वस्तुत: बागममें जहाँ भो स्वभावपर्यायका लक्षण निर्देश करते हुए व्योंको अगुरुलघु गुणद्वारा षड्गुणो हानि-बुद्धिरूप स्वप्रत्यय पर्यायोंका उल्लेख आता है वहाँ बह षव्यसम्बन्धी सब स्वभावपर्यायमें घटित होनेवाले सामान्य लक्षणके रूप में ही उल्लिखित किया गया है। तोसरे हमने तो प्रथम उत्तरमें इतना ही लिखा था कि 'जो साधारण निमित्त होते हैं उनको दोनों स्थलों पर कथानकी अविवक्षा होनस परिगणना नहीं की जाती।' फिन्त प्रतिशंका २ में इस प्रकारको वाक्यरचना निबद्ध को गई है जिससे यह ध्वनित हो कि 'हम स्वभावपर्यायों में साधारण निमित्तोंके कपनकी अविवक्षा ओर विभावपर्यावोंम साधारण निमित्तांके कयनको विवक्षा इतने मात्रसे दोनोंमें भेद स्वीकार करते हैं।' यह एक प्रकारसे हमारे ऊपर आरोप है, किन्तु प्रथम उत्तर में न तो हमारी ओरसे ऐसा लिखा ही गया है और न ऐसा वस्तुस्थिति हो है। प्रथम उत्तरके प्रारम्भ में ही हम यह स्पष्ट कर आये है कि 'स्वभावपर्यायों में स्वप्रत्यय पदद्वारा उसो द्रव्यको उपादान शाक्ति ली गई है और विभाव पर्यायोंमें स्व-परप्रत्यय पबद्वारा विवक्षित द्रव्यको उपादान शक्ति के साथ उस-उस पर्यायके कर्ता और करण निमितोंको भी स्वीकार किया गया है। स्पष्ट है कि प्रतिशंका २ अनेक ऐसे मन्तव्योंसे ओत-प्रोत है जिनका आगमसे समर्थन नहीं होता। दूसरे उत्तरम हमने उन्हीं तथ्यों पर पुनः प्रकाश डाला है जिनका सम्यक प्रकारसे निर्वश प्रथम उत्तरके समय कर आये है। इसमें तत्वार्थवातिक और सर्वार्थसिदि. ५ सू०७का टोकापचन इसलिए उद्धृत किया गया था ताकि अपर पक्षकी समझमें यह बात भलीभांति आ जाए कि स्वभावपर्याय इसलिए ही स्वप्रत्वय स्वीकार की गई है, क्योंकि उनकी उत्पत्तिमें विभावके हेतुभूल बाह्य निमित्तोंका सर्वथा अभाव है। उनमें भी यद्यपि आश्रय निमित्तांका निषेध नहीं है। राजवालिक और सर्वार्थसिद्धिके उत्रन उल्लेख में 'पर' शब्दका प्रयोग इसो अर्थ में किया गया है। किन्तु दूसरे पक्षने इस उल्लेखको अपने मन्तव्यको पुष्टिमें समझकर उससे यह अभिप्राय फलित करने की चेष्टा की है कि स्वभाव पर्याय भी विभाव पर्यायांके समान स्वपर प्रत्यय होता है । हाला कि अपर पक्षने प्रतिशंका २ के अन्त में यह लिखकर कि 'इस तरह जिस परिणमनमें उपादानके साय कर्ता-करण मादि प्रेरक निमित्तोंका व्यापार आवश्यक नहीं हूँ उसे स्वप्रत्यय परिणमन कहना चाहिए।' स्वभावपर्यायोंका स्वप्रत्यय मो स्वीकार कर लिया है जो आगमको दृष्टिसे हमें तो इष्ट है ही, आर पक्षको भी स्वीकृत होना चाहिए । इस प्रकार मूल प्रश्न, उसका उत्सर, प्रतिशंका २ और उसका असर इन सबका यह सिंहावलोकन है। आगे प्रतिशंका ३ के प्राधारसे विचार करते हैं १. पर्यायें दो ही प्रकारकी होती हैं प्रतियांका ३ में हमारे द्वारा पूर्वम उद्घृत तत्वार्थवातिक और सर्वामिद्धि अपाय ५ सूत्र ७ के वचनका उल्लखकर यह बतलाने का प्रयत्न किया गया है कि हमने भी स्वभाव पर्यायांको परप्रत्यय स्वीकार कर लिया है और इस प्रकार अपनी पुरानी मान्यताको पुष्टि करते हुए लिखा है कि 'विश्व के सभी पदार्थों में
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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