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जयपुर ( स्वानिया) तत्त्वचर्चा इति निश्चय कान्तनिराकरणमुख्यस्वेन पाश्यतयं गतं । ततः स्थितमेतनिश्चयव्यवहारपरस्परसाधकमाबेन रामादिधिकल्परहितपरमसमाधिबलेनैव मोक्षं लभते ।।१७२।।
अर्थ—अब पूक्ति प्रकार इस ग्रन्थका तात्पर्य वीतरागता ही जानना चाहिये । वह वीतरागता निश्चय व व्यवहारमय वारा साध्य-साधकरूपसे परस्पर सापेक्षतासे ही मुक्ति कार्यकी सिद्धि होती है, किन्तु दोनों नयोंकी परस्पर निरपेक्षतासे मुक्तिकी सिद्धि नहीं होती । जो कोई, विशुद्ध ज्ञानस्वभावमयो शुद्धात्मतत्वका श्रद्धान-ज्ञानानुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्गको अपेक्षारो रहित, मात्र शुभ आचरणरूप व्यवहारनयको ही मोक्षमार्ग मानता है वह स्वर्ग आदिके संक्लेश भोगकर परम्परासे संसारमें भ्रमण करता है। यदि वही जीच पुनः शुद्धात्मानुभूतिमयी निश्चयमोक्षमार्गको मानता है, निश्चय मीक्षमार्गरूप अनुष्ठान करनेको शक्ति न होनेसे, निश्चयका साषकरूप शभ अनुष्ठानको करता है तो वह सरागसम्यग्दष्टि होता हुआ परम्पराय मोरको प्राप्त करता है। इस प्रकार व्यवहार एकान्नके निराकरणको मुख्यतासे दो घाश्य ही कहे गये।
निश्चय एकान्तका कथन
जो केवल निश्चयके अवलम्बी है वे भो, रागादि बिकल्परहित परम समाधिरूप शुद्धात्माको प्राप्त न करनेपर भो तरुचरणके योग्य षडावश्यक प्रादि अनुष्ठान अथवा श्रावकाचरणके योग्य दान-पूजादि अनुष्ठानको हेयरूप (अन्धरूप) मानकर उनसे भ्रष्ट होता हुआ अर्थात् उन चरणोंको न करता हुमा निश्चय व्यबहाररूप अनुष्ठानके योग्य अनेकान्त रूप अवस्थाको नहीं जाननेसे पापको ही बांधता है । यदि पुन: बह जीव शुद्धात्मानुष्ठानरूप निश्चय मोक्षमार्गका सापक व्यवहार मोसमार्गको मानता है फिर भी बारित्रमोहके उदयके वश शक्तिके अभावसे शुभाशुभ अनुष्ठान नहीं करता है। यद्यपि शुखात्मभावनासे सापेक्ष शुभ अनुष्ठानमें रत ऐसे पुरुषके सदृश नहीं होता तयापि सरागसम्यक्त्व आदि सहित व्यवहार सम्यग्दृष्टि होता है और परम्परा मोक्षको प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार निश्चय एकान्तके निराकरणको मुख्यतासे दो वाषय कहे गये।
इससे यह निश्चित होता है कि निश्चय और व्यवहार नोंमें परस्पर साध्य-साधकभावके द्वारा सापेक्षता रखते हये रागादि बिकल्प-रहित परम समाधिके बलसे हो मोक्षफी प्राप्ति होती है। - थी अमृत चन्द्रसूरि भो पंचास्तिकाय गाथा १७२ को टोकामें कहते हैं कि केवल निश्चयनयसे भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं होतो और केवल व्यवहारमयसे भो मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । इस प्रकार निश्चयाभासो
और व्यवहाराभासीका, मथन किया गया है। निश्चय और व्यवहारके अविरोधसे ही मोक्षको प्राप्ति होती है। सूरिजी इस बातको इन वाक्यों द्वारा कहते हैं जो ध्यान देने योग्य है
तदिदं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिाहये न पुनरन्यथा ।
अर्थ-व्यवहार और निश्चयका अविरोधपूर्वक अनुसरण करते हुए जो यह वीतरागता प्राप्त होती है उसोसे मोक्षको सिद्धि होती है, अन्य प्रकारसे मोक्षकी सिद्धि नहीं।
'पर्यायबुद्धि तो तू अनादिकालसे बनाए चला आ रहा है' इस वाक्यके लिखनेसे यदि आपका मह अभिप्राय रहा हो कि 'व्यवहार नय अभतार्थ है, इसलिये पर्यायका ज्ञान श्रद्धान निरर्थक है, मान द्रव्यज्ञान अर्थात् एकान्त निश्चयनयसे मोक्षकी प्राप्ति हो जायगो सौ ऐसा अभिप्राय उचित नहीं है। द्रव्य (स्वभाव)