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________________ शंका १६ और उसका समाधान ७५३ इस दृष्टिमें अर्थात् स्वभावग्राही निश्चयनममें तो न बंध है और मोक्ष न है। पर्यायकी अपेक्षा ही बंध या अशुद्धता है। उस बन्ध या अशुद्धताका क्षय करके पर्यावको अपेक्षा हो मोच या शुद्धता प्राप्त करनी है। श्री पंचास्तिकायके आधारसे ऊपर यह सिद्ध किया जा चुका है कि निश्चय और व्यवहार दोनों अविरोध आश्रयसे मोक्षको प्राप्ति है। जो एकान्तसे निश्erest अवलम्बन लेते हैं वे मोक्षको तो प्राप्त करते हो नहीं, किन्तु उल्टा पापबन्ध हो करते हैं। आशय अनेकान्तपर दृष्टि जानेका था, क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि दुर्लभ मनुष्य भव पाकर भी जोव किसी न किसी एकान्त मिथ्या मान्यता के चक्कर में फँस जाता है। कोई तो एकान्त कालक श्रद्धा करके यह विचार कर, कि जब मेरी काललन्धि आयेगी उस समय मेरा कल्याण हो जावेगा और मेरी बुद्धि भी उसी समय कल्याणकी ओर लगेगी और कानलब्धि बिना कल्याण हो नहीं सकता, कल्याणमागमें पुरुषार्थ होन हो जाता है। कोई भक्त या होनहारके एकास पक्षको ग्रहणकर सोता है कि जब मेरे कल्याही भक्ष्यित होगी उसी समय मेरा कल्यान होगा उसके पूर्व या पश्चात् नहीं हो सकता, ऐसा सोचकर कल्याणमार्गसे वंचित रह जाता है । अन्य कोई सोचता हूँ कि मेरा कल्याण तो नियति अपर नाम क्रमबद्ध पर्यायके आधीन है, में कल्याण करनेमें स्वाधीन नहीं हूं। विचारता है कि जो कुछ भी अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार हो रहा है वह सर्व निति जिसमें कोई हेर नहीं कर सकता यदि में अन्यायादिरूप होता है व्रत वे सच नियति के अधीन हैं, मैं तो सर्वथा निर्दोष हूँ। कोई संयम व चारित्रको मात्र बन्धका कारण जानकर उनसे पराङ्मुख रहता है और स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है। ऐसे जीवोंकी दृष्टि अनेकान्तपर लानेके लिये यह प्रश्न था अनेकारतका ही उपदेश यवंशने दिया है। 'बनेात' जैनधर्मको विशेष देन है और अनेका दृष्टि मोक्षमार्ग है इति । नोट- इस विषय में प्रथम १, ४, ५, ६ और १७ पर दृष्टि दालिये तथा इनके प्रत्येक दौरका विषय देखिये | इतना ही नहीं वह अधीन हो रहा है, दोष आदि लगते हैं, मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी | मंगलं कुन्दकुन्दायों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ प्रथम उत्तर में हमने स्पष्ट प्रकाश डालने वा शंका १६ मूळ प्रश्न १६ – निश्चयनय और व्यवहारनयका स्वरूप क्या है ? व्यवहारनयका विषय असत्य है क्या ? असत्य है तो अभावात्मक है या मिध्यारूप ? प्रतिशंका ३ का समाधान १. प्रथम द्वितीय दौरका उपसंहार निश्चयमय और अवान्तर भेदोंके साथ व्यवहारनयके स्वरूप और निर्विकल्प निश्वयय और उसके विषयका निर्देश कर दिया था। इन तोके
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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