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जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा
विषयमें कुछ मिलने के लिए शेष नहीं रहने दिया था। इन क्योंका इस पद्धति जिससे निश्वयनय भूतार्थ क्यों हूँ और नय अभूतार्थ क्यों कहे गये है विषय गहन होते हुए भी उसे सरल करनेका प्रयत्न किया गया था। अपने दूसरे दौर में अपर पक्ष हमारे प्रथम उत्तरका पढ़कर उसे अपने प्रश्नका उत्तर नहीं माना है इसका हमें आश्चर्य है । वह हमसे क्या कहलाना चाहता था यह उसके द्वितीय दौरमें उपस्थित किये गये निरुपणसे स्पष्ट हो जाता है। इसके प्रारम्भ में उम पक्ष ने इधर-उधर को कुछ बातोंका संकेतकर असद्भूत हारको विषयभूत व्यवहार क्रियाओंपर प्रकाश डाला है और इन क्रियाओंके आधारपर निश्वयस्वरूप शुद्धात्माकी प्राप्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति बतलाई है।
विवेचन किया गया था इसका स्पष्ट ज्ञान हो जाय ।
फलस्वरूप हमें अपने दूसरे दौर में उत्तर लिखते समय अपनी दृष्टिको प्रस्तुत प्रतिशंका में वर्णित विषयका आगमानुसार स्पष्टीकरण करनेकी दिशा में ही विशेषरूपले केन्द्रित रखना पड़ा। इसमें उन सब feaster स्पष्टीकरण किया गया है जिनका निर्देश अपर ने अपनी प्रस्तुत प्रतिकार्य किया है। २. दो प्रश्न और उनका समाधान
सत्काल प्रतिशंका के आधारसे विचार करता है। इसके प्रारम्भ में अपर पर मूल प्रश्नको चार भागों में विभक्त करनेके बाद अपनी पुरानो शिकायतको पुनः दुहराया है। साथ ही हमने जिन ग्रन्थोंके प्रमाण दिये है उनमेंसे एक पुस्तक के कथनको अर्थ विरुद्ध बतलाकर लिखा है कि ऐसी पुस्तकेवाको लिखकर व्यर्थ कलेवर बढ़ा दिया गया है। यदि ऐसा न किया जाता तो सुन्दर होता अपर पक्ष किस पुस्तकको अर्थ विरुद्ध समझता है और क्यों समझता है उसका उसको ओरसे कोई खुलासा नहीं किया गया। इससे मालूम पड़ता है कि उसकी ओरसे यह टोका आवेश वदा हो को गई है। जिस पुस्तकका स्वाध्यायकर हजारों ही नहीं, लाखों नर-नारी अपना कल्याण करते हों उसे आवेशवा कारण आर्यविरुद्ध घोषित करना अनर्थकर घटना ही मानी जायगी।
आगे अनेकान्तका स्वरूप लिखने के बाद अपर पक्षने लिखा है- 'एक वस्तु में विवक्षाभेदसे दो प्रतिपक्ष धर्म पाये जाते हैं, अतः उन दोनों धर्मो से प्रत्येक धर्मको विवक्षाको ग्रहण करनेवाला पूराय्-पृथक् एकएक नय है।'
यह अपर पथके यक्स यका कुछ अंश हूँ । इस परसे विचारणीय दो प्रश्न उद्भूत होते हैं१. एक वस्तु विभेद दो प्रतिपक्ष धर्म पाये जाते हैं, क्या ऐसा वस्तुका स्वरूप है ? २. क्या प्रत्येक धर्मकी विवक्षाको ग्रहण करना यह नय है ?
आगे इनका कमसे समाधान किया जाता है
१. किसी भी वस्तु कोई भी धर्म विवथा भेदसे नहीं रहा करता क्योंकि प्रत्येक धर्म वस्तुका स्वरूप होता है बोर जो धर्म जिस वस्तुका स्वरूप होता है वह स्वतः सिद्ध होता है। प्रयोजनव विवक्षा एक धर्मको मुख्यकर और दूसरे धर्मको गौणकर व्यवहारकी प्रसिद्धिके लिए वस्तुकी सिद्धि करना अन्य बात है | इसो तथ्यको स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू० ३२ में लिखा है
अनेकान्तात्मकस्य वस्तुन: प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिदस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीय मिति यावत् । तद्विपरीतममर्पितम् प्रयोजनाभावाद सवोऽप्यविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीमूमन पंमियु