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अयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा आत्मा ही उन्हें उत्पन्न करे, फिर भी अज्ञानभावसे परिणत आत्माको उनका बन्धक स्वीकार न करना युक्तयुक्त नहीं है।
___ विभाष शब्दका स्पष्टीकरण करते हुए अनगारधर्मामृत अध्याय १ श्लोक १०६ की टोकामें लिखा है
विभावो हि बहिरङ्गनिमितम् । विभाव बहिरंग निमित्तको कहते हैं।
इसलिए जितनी भी वैभाविक पर्याय उत्पन्न होती हैं वे सब स्व-परप्रत्यय होनेसे रागादिकका व्यवहार हेतु परको स्वीकार करनेपर भी निश्चय हेतु अज्ञानभावसे परिणत आत्माको स्वीकार कर लेना हो उचित है । अत: एक द्रय वन्ध्य बन्धकमात्र अपने गुणधर्मति साथ निश्चयसे बन जाता है। परमागमका भी यही अभिप्राय है।
इसलिए न तो अपर पक्षका यह लिखना ही ठीक है कि किन्तु स्वपर्यायके साथ बन्ध्य-बन्घकभाक कदापि नहीं हो सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर सब कार्यों की उत्पत्ति केवल परसे माननी पड़ती है । विन्त ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर सिद्धोंमें भी रागादिभावोंके स्वीकार करनेका अतिप्ररांग उपस्थित होता है।
और न अपर पक्षका यह लिखना ही ठोक कि 'इसका आपने कोई उत्तर नहीं दिया। इसका अर्थ है कि वह आपको स्वीकृत है। क्योंकि जब कि हमने अपने प्रयम उत्तरमें हो यत्र मष्ट कर दिया था कि 'संसारी जीव अंशुद्ध लियच यनयको प्रपेक्षा अपने रागांद भावोंसे बद्ध है और असदभूतव्यवहार नमको अपेक्षा कमोंसे बद्ध है।' ऐसी अवस्थामें संसारी जीव विस अपेक्षा बद्ध है और किससे किस प्रकार है इन दोनों खण्डोंका इत्तर हो जाता है।
(इ) बंधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ?
यह अपर पक्ष द्वारा उपस्थित किये गये मूल प्रश्न का तीसरा खण्ड है । हम इसका नविभागसे उत्तर देते हुए प्रथम वार ही लिख आर्य है कि 'संसारी आत्मा अशुद्ध निश्च यनयको अपेक्षा अपने अज्ञानभाषसे बद्ध होने के कारण वास्तव में परतन्त्र है और सद्भुत व्यवहारनयकी पक्षा उपचरित रूपसे कर्म और नोकर्म की अपेक्षा भी परतन्त्रता घटित होती है। किन्तु नयवभागसे दिये गये सबगिपूर्ण इस उत्तरको अपर पक्ष सम्पक नहीं मानना चाहता है। वैसे हमने जसे 'सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध है तो किससे बंधा हुआ है ।' मूल प्रयनके इन दो खण्डोंका उत्तर देते हुए शुख निश्चयनयके पक्षको भी उपस्थित कर दिया था । उसी प्रकार संसारी आत्मा सर्वथा परतन्त्र नहीं है, न यविभागसे इस पक्षको भी साथ में उपस्थित कर देना चाहिए था 1 फिर भी हमने इस पक्षको उपस्थित न कर संभारी जीवमें किम नपसे कमी परतन्त्रता घटित होती है मात्र इतना ही निर्देश किया था। संसारी जीव मात्र परके कारण परतन्त्र है इस एकान्त के स्वीकार करने पर न केवल मोक्षमार्गकी व्यवस्था गड़बड़ा जायगो। किन्तु जीवके संसारो और मुक्त ये भेद भी नहीं बनेंगे और इस प्रकार जीवद्रव्यका अभाव हो जानेसे प्रजोत्र द्रव्यका भी अभाव हो जायगा। इन्हीं सब बातोंका विचारकर हमने नविभागसे उक्त उत्तर दिया था।
किन्तु अपर पक्षने इस तथ्यको ध्यानमें न लेवार और आरलपरीक्षाके उद्धरण उपस्थित कर पिछली प्रतिशंकामें यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि 'आत्मा पौलिक द्रव्य मौके कारण परसन्न हो रहा है और