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________________ शंका ९ और उसका समाधान ५८६ रागादिभाव परतन्त्रतास्वरूप है, इमलिए आत्माके भाव स्वयं परतन्त्ररूप है। आत्माके परतन्त्रताके निमित्त नहीं है।' समाधान यह है कि आप्तपरीक्षाका उक्त कथन व्यवहारमय बना है। उसके आधारसे पौद्गलिक वोंको एकान्तसे परतन्त्रताका कारण मान लेना उचित नहीं है। यथार्थ में मात्मा किस कारणसे परतन्त्र हो रहा है इस कथनके प्ररांगसे निदरेय जयवचनका उल्लेख करते हुए वे ( विधानन्दि) ही आनायं तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृ०४८४ मे लिखते है कवायपरतन्त्रस्थात्मनः साम्परायिकानवः, तदपरतन्त्रस्येयर्यापथास्रवः इति सूनाम् । कषायसे परतन्त्र हए आमाके साम्पराधिक आस्रव होता है और उससे परतन्त्र नहीं हा आत्माके ईर्यापथ आस्रव होता है यह नाचत ही कहा हैं। इस पर पुनः प्रदन हुआ कि एक आत्मामें परतन्त्रता बनती है और दूसरे में नहीं इसका क्या कारण है ? इसका समाधान करते हुए वे पुनः लिखते हैं कषायहेतुकं घुसा पारतन्न्यं समन्ततः । सरवान्तरानपेक्षीह पमध्यगमँगवत् ।।८।। कपाश्रविनिवृत्ती मु पारतन्ध्यं निवन्यते । ययेह कस्यचिच्छारतकषायावस्थितिक्षणे ।। ५ ।। इस लोकमें जैसे पद्मके मध्य स्थित भौरकी परतन्त्रता कषायहेतुक होती है उसी प्रकार इस जीवकी सत्वान्तरानपेक्षो समन्तत: परतन्त्रता कपायहेतुक होती है ॥८॥ परन्तु कषायके निकल जाने पर परतन्त्रता भी निकल जाती है। जैसे इस लोक में किसीके कषायके शान्त होने पर उसी समय परतन्त्रता निकल जाती है ।। || यह वास्तविक कथन है । भ्रमरको व.गल अपने आधीन नहीं बनाता है, किन्तु इसका मूल हेतु उसकी क्रयाम-कमलविषयक आसक्ति ही है। इसीप्रकार मह जीन कर्माधीन कपायके कारण ही होता है, अतः निश्चयसे परतन्त्रतामा मल कारण जीयकी कृपायी। अपर पक्ष एकान्तका परिग्रह कर और क.पायको पारतव्यस्वरूप मानकर केवल कमको ही परतन्त्रताका हेतु मानता चाहता है जो युवत नहीं है, क्योंकि परतन्त्रता रूप मायकी उत्पत्ति व्यवहारसे जहाँ परहेतुक कहो गई है वहां से निश्चय स्वतक ही जाना चाहिए । असहस्रो पृ०५१ में जीवमें अज्ञानादिदोषांकी उत्पत्ति कैसे होती है इसका निर्देदा बारह लिखा है तन्देतुः पुन गवरणं कर्म जीयस्य पूर्वस्वपरिगामश्च । स्वपरिणामहंतुक एवाज्ञानादिरित्ययुतम् , तस्य कायाचिकटवविरोधात् , जीवत्वादिवत् । परपरिणामहेतुक एवेत्यपि म व्यवतिष्ठते, मुकाश्मनोऽपि तत्प्रसंगात । सर्वस्य कार्यस्योपादानसहकारिसामग्रीजन्यतयोपगमा सथा प्रतीतश्च । उन अज्ञानादि दोषोंका हेतु तो आवरण कर्म और जीवका पूर्व स्वपरिणाम है। स्वपरिणामहेतुक ही अशानादि दोप है यह कहना अयुक्त है, क्योंकि ऐसा मानने पर उनके काचित्पनेका विरोध होता है, जीवत्वादिके समान । परपरिणामहेतुक ही अज्ञानादि दोष नहीं बन सकते, क्योंकि ऐसा मानने पर -
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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