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________________ जयपुर ( खानिया ) तस्वधर्चा उनका मुक्तात्माओंमें भी सद्भाव माननेका प्रसंग उपस्थित होता है। सभी कार्य उपादान और सहकारी सामग्रोसे उत्पन्न होते हुए स्वीकार किये गये है और वैसी प्रतीति होती है। अपर पक्षके प्रश्नोंका पूर्ण उत्तर आगमको उक्त बड़े टाईपमें मुद्रित पंक्तियोंसे हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृत आत्माको परतन्त्रताका मुरुप हेतु जोरके कषावादि परिणामोंको हो मानना उचित है, क्योंकि उनके होनेपर हो परमें परतन्त्रताको व्यवहारहेतुता स्वीकार की गई है, अन्यथा नहीं । इस प्रकार अपर पक्षने अ०, आ. और ३० इन तीन खण्डोंके बिषयमें पूर्व पचके रूप में जो विचार रखे हैं ठीक नहीं हैं। अपर पक्ष जब तक स्वाश्रित निश्चय कथन को यथार्थताको स्वीकार नहीं करता और मात्र पराश्रित स्पयहार कथनके आधार पर की गई कार्यकारणको व्यवस्थाको असद्भुत व्यवहार ( उपचरित) रूप नहीं स्वीकार करता तब तक मतभेदका समाप्त होना कठिन है। हमने मूल प्रश्नमें जितनी बातें पूछी गई धौं जन सबका उत्तर दिया है । अपर पक्ष अपने मूल प्रश्न और अपनी पिछलो प्रतिशंकाको सामने रखकर पिछले दोनों उत्तरों पर दृष्टिपात करने की कृपा करें। अपर पक्षने जयपुर (खानियां ) में १७ प्रश्न पूछे थे। उन सबका सम्मिलित उत्तर यह है कि आगममें इन प्रश्नों के उत्तर स्वरूप जितना भी स्वाश्रित विवेचन उपलब्ध होता है वह यथार्थ है और जितना पराश्रित विवेचन उपलब्ध होगा वह पचरित है। ३. सद्भूत व्यवहारलयके विषयमें स्पष्टीकरण व्यालापपद्धति में असद्भूत व्यवहारनयके दो लक्षण कहे गये हैं१. अन्यत्र प्रसिवस्य धर्मस्थान्यत्र समारोपणसमद्भूतन्यवहारः । १. अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र समारोप करना असद्भूत ब्यवहार है। २. भिन्नवस्तृविषयोऽसद्भूतव्यवहारः । २. भिन्न वस्तुको विषय करना असद्भूत व्यवहार है। प्रथम लक्षणके अनुसार नौ प्रकारके उपचारको परिगृहीत किया गया है और दूसरे लमणके अनुसार असद्भूत व्यवहार के भेदको विषय करनेवाला बतलाया गया है । ये दो लक्षण दो वृष्टिगोंसे किये गये है। प्रथम लक्षणके द्वारा अनादिरूढ़ लोकव्यवहारकी परमार्थके साथ कैसे संगति बैठती है इसकी व्यवस्था की गई है और दूसरे लक्षगके द्वारा मोक्षमार्गमें साधकको आस्मद्रव्यमें भेदव्यवहारके प्रति कैसी दृष्टि होनी चाहिए इसे स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार पृथक-पृयक प्रयोजनोंको ध्यान में रखकर आगममें चारों प्रकारके व्यवहारोंको दो प्रकारसे निरूपित किया गया है। हमने इसी प्रश्न के द्वितीय उत्तर में असद्भुत व्यवहारनगके प्रथम लक्षणको ध्यान में रखकर तो स्पष्टीकरण किया ही है। सबै प्रश्नके प्रथम उत्तर में भी उसी दृष्टि को ध्यान में रखकर स्पष्टीकरण किया गया है । दोनों कथनोंमें शब्दभेद अखष्य है, पर दोनोंका बाशय एक ही है। दो भिन्न वस्तुओंका परस्पर जो भी सम्बन्ध कहाँ जायगा वह एक दूरुपके गुण-धर्मको दूसरेका बतलाकर ही सो कहा जायगा। स्पष्टीकरण इस प्रकार है
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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