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________________ ५२२ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा है, क्योंकि आगम में उसे केवलीका कार्य स्वीकृत किया है। इसके लिए धवल पुस्तक १ पृष्ठ ३६८ पर वीरसेनाचार्य के निम्नाङ्कित पचन द्रष्टव्य है तन मनसोऽभावे तस्कार्यस्य वचसोऽपि न सस्वम् ? इति चेत् न, सस्य ज्ञानकायस्वात् । अर्थ-यहाँ कोई प्रश्न करता है कि जब फेवलीके मनका प्रभाव है तब उसके कार्यरूा वचनका सद्भाव कसे माना जा सकता है ? यह प्रश्न टोक नहीं है, क्योंकि वचन शानका कार्य है। रत्नकरण्डश्रावकाचारमै श्री स्वामी समन्तभद्रने भो यही बात कही है अनारमार्थ विना रागैः शास्ता शाप्ति सतो हितम् ॥ ॥ (पूर्वार्ध) अर्थ-- केवलज्ञानी भाप्त वीतराम होता हृा भी आत्मप्रयोजनके विना भव्यप्राणियोंके हितका उपदेश देता है। इस कथनसे यह अभिप्राय निकलता है कि दिव्यध्वनिको प्रामाणिकता वस्तुतः केवलज्ञान अथवा केवलज्ञानीके आधित है, स्वाधित नहीं। बापने वचनवाणाकी स्वाचित प्रमाणता सिद्ध करने के लिये जो समयसारको अन्तिम ४१५ गाथाकी श्री अमलचन्द्रमरिकृत टीकाके वाक्यांश तथा अन्तिम कलश पद्यको उपस्थित किया है उससे बचनवर्गणाकी स्वाचित प्रमाणता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि एक तो उपर्युक्त प्रमाणोंके अनुसार जैनागममें वचनको स्वाधित प्रमाणता नहीं स्वीकृत की गई है। दूसरी बात यह है कि मन्तिम कलशसे श्री अमृतचन्द्रसुरिने समयसारको टीका समाप्त करते हुए अपनी लघुता प्रकट की है व अपनी टीकामें समयसारका माहात्म्य प्रकट किया है, सिद्धान्तका प्रतिपादन नहीं किया है ? श्री अमृतचन्द्रसूरिने स्वरचित पुरुषार्थसिद्धयु पाय तथा तत्वार्थसार आदिमें भी इसी पतिको अपनाया है। आपने जो तीर्थकर प्रकृतिके उदय और दिव्यध्वनिका असतब्यवहार मयसे निमित्त-नैमित्सिकसम्बन्ध प्रतिपादित किया है वह संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि दिव्यध्वनि सामान्य केवलीको भी खिरती है तया हमारा प्रश्न भी सामान्य रूपसे केवलज्ञान व केवलज्ञानी आत्माके साथ दिव्यध्वनिके सम्बन्धविषयक है। आपने धर्मदेशना दिव्यध्वनि)को प्रवचनसार गाथा ४४ के आधारपर जो केवलीका स्वभाव भूत प्रवर्तन बतलाया है वह दिव्यध्वनिकी स्वाचित प्रमाणताका विघातक है, क्योंकि उस गाथा तथा उसकी ममतचन्द्रसूरिकृत टोकासे दियध्वनि केवली भगवान्को ही क्रिया सिद्ध होती है । इस माथाम स्वभावभतका अर्थ बिना इच्छासे है । इस बातको पुष्टि श्रो समन्तभद्राचार्य विरचित स्वयंभूस्तोत्रके निम्न लिखित पद्यसे भी होती है काय-वाक्य-मनसा प्रवरायो नाभवंस्तब मुनेश्चिकीर्षया ॥ ७५ ॥ अर्थ हे भगवन् ! आपको मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ विना इच्छाके हो हुआ करती हैं । इस तरह आपका कथन प्रमाणसंगत नहीं कहा जा सकता है। अलमें हमारा निवेदन है कि आप हमारे उल्लिखित प्रश्न के तीन खपड़ोंका उत्तर अवश्य देंगे। 'दो या दो से अधिक द्रव्यों और उनकी पर्यायों में जो सम्बन्ध है वह असद्भुत ही होता है यह आपने लिया है. इसमें असद्ध त पदसे बापका आशय क्या झुठसे है या अन्य किसी अर्थ से? इसका भी अवश्य स्पष्टीकरण करेंगे।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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