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जयपुर (खानिया ) तत्त्वपर्चा 'असंख्पात लोकमात्र उत्सर (बहिरंग) कारणों की सहावसायुक्त उत्कृष्ट अन्तिम एक विशुद्धिके द्वारा बांधे जानेवाले अनुभागके स्थान असंख्यात लोकमात्र है।'-१० १२० ।
इसी वंदना भावविधानानुयोगड़ा के इन तीन कथनास यह सिद्ध हो गया कि बाह्य सहकारी कारणोंके भेदसे एक ही परिणामसे नाना प्रकारका अनुभागबन्न होता है। अर्थात् मात्र सहकारी कारणोंके भेदसे अनुभागबन्ध में अन्तर पड़ जाता है। यहां पर सहकारी कारणकी प्रधानता है। इस विषय में एकान्त नियम नहीं, किन्तु अनेकान्त है । कहीं पर अन्तरंग कारणकी प्रधानता होती हैंतो कहीं पर महकारी कारणों को प्रधानता होता है।
सहकारी कारणों की प्रधानताको स्पष्ट करते हुए श्री वीरसेन स्वामी धवल पु० १ संतपस्वणाणुयोगद्वार सूत्र १२१ की टीका में लिखते है
'मात्र संयम ही मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्तिका कारण नहीं है, किन्तु अन्य भी मनःपर्ययज्ञानकी पत्तिके कारण है. इसलिये उन दसरे इंतुओं के न रहनेसे समस्त संयतीके मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। वे दूसरे कौनसे कारण है ? विशेष जानिक द्रव्य, क्षेत्र, कालादि अन्य कारण हैं जिनके बिना संयतों के मन:पर्थयज्ञान उत्पन्न नहीं होता है।'
इस प्रकार 'मात्र उपादान कारणसे ही कार्यको उत्पत्ति हो जाती है और बाह्य कारण अकिंचित्कर है इस एकान्त मान्यताका इन आगम प्रमाणोंसे रखण्डन हो जाता है।
प्रश्न नं०६ के उत्तरीकी चरचा तो यथास्थान की जा चकी है। आपने यह लिखा है कि व्यवहारके विषयको निश्चयरूप मानकर उत्तर दिये गये है। इसमें यदि "निश्चय' से अभिप्राय वास्तवका है तो हमको इष्ट है। यदि अभिप्राय मिश्चयनयसे है, तो आपने निरनयनयको स्वरूप पर दृष्टि नहीं दी। निश्चयनयकी दृष्टि में न बंध है, न मोक्ष है। बन्च तो व्यवहारनयका विषय है। आप अन्धको भी निश्चयनयका विषय बनाकर बाह्य कारणांका लोग करना चाहते है जो कि आगम और प्रत्यक्षसे विरुद्ध है।
रामयसारकी 'सम्मत्तपतिपिवळू' इत्यादि तोन गाथाओंमें 'मिच्छतं अपणा और कथाय' का अभिप्राय द्रव्यकमसे है, जैना कि इन वोग माथाको उत्थानिका, दोका तथा कलश ११० से १४ है। उत्थानिका इस प्रकार है
कमप्पो मोक्षहेतुतिरोधायिभाव दर्शयति । अर्थ-आगे कर्मका मोलके कारणभत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रोंका तिरोधामिएन दिखलाते है। - दूसरी टीकाको उत्थानिका
अथ पूर्व मोक्ष हेतुभूतानां सम्यवत्वादिजीवगुणानां मिथ्यस्यादिकर्मणा प्रच्छक भवतीति कथितम् । इदानीं सदगुणाधारभूतो गुणी जीवो मिथ्यात्वादिकर्मणा प्रच्छाद्यते इति प्रकटीकरोति । ___ अर्थात् पूर्व गाथा १६० में 'सवणपणदरिसी कम्मरएण अवच्छण्णो' (सबको जाननेवाला और देखनेवाला है तो भो कर्मरूपी रजमे आच्छादित हुआ) पदके द्वारा यह बतलाया जा सका है कि मोक्ष के कारण सम्यक्त्वादि जीवगण मिथयात्वादि कमौके द्वारा आच्छादित हैं। अब उन गुणोंका आधारभूत गुणी जीव, मिथ्यात्वादि कोंके वारा आच्छादित है इस बातको प्रकट करते है। इन तीनों गाथाओंकी टीकाम श्री जयसेन आचार्य लिखते है--
शुभाशुभमनोवचनकायन्यापाररूपं तद्न्यापारेणोपार्जितं बाशुमाशुभकर्म मोक्षकारणं न भवनि ।