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________________ ४९४ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा ऐसा क्यों होता है ? इस पर अपर पक्षने कभी दृष्टिपात किया। अपर पल रहेगा कि धर्म ग्रव्य तो है, किन्तु इस पर हमारा कहना यह है कि एक तो वह आश्रय हेतु है, निमित्त कर्ता नहीं। दूसरे अपर पक्ष यह स्वीकार हो नहीं करता कि ये धर्मादिक बार द्रव्य प्रतिविशिष्ट (प्रतिनियत ) पर्यायरूपसे ही प्रतिविशिष्ट (प्रतिनियत ) कार्यके लिए आश्रय हेतु होते हैं । ऐसी स्थिति अन्य कोई हेतु तो होना चाहिए जिसके कारण पर माणूको गति यह विदितता देखी जाती है। स्पष्ट है कि यहाँ अन्य जो भी कारण है उसका नाम कवायती शक्ति है। उसका जिस समय जैसा परिणमन होता है उसके अनुसार ही प्राणियों और पुद्गलोकी गति और आगति हुआ करती है। बाह्य साधन तो उपकरणमा है जो हम तको सिद्ध करते हैं कि इस रामय इस जोव या पुद्गली कियावती शक्तिका परिणाम किस रूपये हो रहा है। जैसे कोई मनुष्य बाजार मह कोले कपड़े पहन कर जाता है तो वे रागमे निमित्त होकर भी यह सिद्ध करते हैं कि इस समय इसके कड़ों के प्रति उत्कट राग है। उसी बाह्य वस्तु विमित व्यवहार होता है जो की सिद्धि करे यही परमागमका अभिप्राय है। गरी प्रत्येक रूपको स्वतन्त्रता बनी रहती है और सारी प्राणीको आगममं जो परतन्य बतलाया है उसका क्या अभिप्राय है यह भी समझ में आ जाता है। कर्म और गोकर्म किसीको पश्वग्य नहीं बनाते । परतन्त्र बनने में अपराधी स्वयं यह जीव हो है उपयोग गरिणामवाला यह जीव जब शुभ या अशुभ जिस भाव उपयुक्त होता है तब उसने वस्तुतः शुभ या अशुभ भावको ही परतन्त्रता स्वीकार की है, कर्म और नोकर्म की नहीं। किन्तु ऐसा नियम है कि शुभ या अशुभभाव परलक्षी परिणाम है, इसलिए जिसके लक्ष्यसे ये परिणाम उत्पन्न होते हैं व्यवहारसे उनकी अपेक्षा यह जीव परतन्त्र कहा जाता है। जैसे किसी मनुष्यकी अपनी स्कीमें अधिक आमक्ति देखकर अपर पक्ष उस मनुष्यको ही यह उपदेश देगा कि तुम्हें स्त्रीविषयक आसक्ति छोड़नी चाहिए। यदि यह मान लिया जाय कि स्त्री उसे परतन्ध बनाती है तो उस मनुष्यको उप देश वैसे लाभ हो गया ? तब तो स्त्रीको ऐसा उपदेश दिया जाना चाहिए कि तू इस मनुष्यको परतुम्व क्यों बनाती है, इसे गरतन्त्र बनाना छोड़ दे। इससे स्पष्ट है कि परमें राग करे या न करें इसमें प्रत्येक प्राणीको स्वतंत्रता है | लक्ष्य यदि परको कर राग करता है तो परतंत्र होता है, अन्यथा नहीं अब विचार कीजिए | कि शुगका जीव रहा कि कर्म और नोकर्ममें राध कर्मस्वभाववाला है और उसका फल सुख-दुख है, इसलिए ये भी कर्मस्वभाववाले हैं। इसमें नोमंका भो अन्तर्भाव हो जाता है। जब यह जीव उनसे चेतता है तब यह कर्मचेतना और कर्मफल चेतनाका कर्ता होता है। यह स्वयं उसने अपने अज्ञान से स्वीकार किया है, कर्म और नोकमने बलात् स्वीकार नहीं कराया है। ऐसी परिणतिमें ये तभी निमित्त हैं जब वह इसरूप स्वयं परिणमता है, अन्यथा नहीं। इससे सिद्ध है कि जिस समय जैसी क्रियावतो शक्तिका परिणमन होता है उस समय स्त्रयं कर्ता होकर यह जीव उस प्रकारकी गति करता है, तांगा, सायकल, मोटरकार, हवाई जहाज या अतिस्वन विमान तो निमित्तमात्र है । अपर पक्ष यहाँ पर सही पु० २०० का उल्लेख अपने पक्ष समर्थनको दृष्टिसे उपस्थित किया है किन्तु वह पक्ष इस उल्लेखके प्रकाश अष्टमस्री कारिका १०० ६ के इम उल्लेख पर भी दृष्टि करनेको कृपा करे कार्याप्रागन सरपर्यायस्तस्य प्रागभावः । तस्यैव प्रध्वंसः कार्य घटादिः । कार्यसे अनन्तर पूर्व पर्याय उसका प्रागभाव हैं तथा उसीका प्रध्वंस घटादि कार्य हैं ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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