SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शंका ६ और उसका समाधान को परिणमाते भी नहीं । ये स्याहीको शब्दरूप परिणमाते हैं यह उपचार कथन है । वस्तुस्थिति यह है कि स्याही स्वयं स्वकालमें इन इच्छा आदिको निमित्त कर शब्दरूप परिणम जाती है। कोई भी द्रश्य स्वसहाय होकर ही परिणमन करता है, परसे यदि दुसरे द्रव्यका परिणाम मान लिया जाय तो वह किसी भी ट्रम्पका स्वभाव नहीं ठहरेगा और स्वभावके अभाव में स्वभावनानका अभाव हो जाने से द्रवपके लोपका प्रसंग उपस्थित हो जायगा जो अपर पक्षको भी इष्ट नहीं होगा, अत: निश्वयसे प्रत्येक कार्य स्वसहाय होता है यहीं निश्चय करना ही श्रेयस्कर है। बिजलोके अभावमें यदि स्याही शब्दरूप नहीं परिणम रही है तो उस समय उसमें शब्दरूप परिणमनकी समर्थ उपादानता न होनसे ही वह शन्दरूप नहीं परिणम रही है इसे बिजलीका अभाव ही सिद्ध कर देता है। 'विवक्षितस्वकायकरणइन्स्यक्षणप्रासवं हि सम्पूर्णम्' विवक्षित अपने कार्यके करने में अन्त्यक्षणके प्राप्तानेका नाम हो सम्पूर्ण है। इससे स्पष्ट है कि स्याही जिस समय लिखित शब्दरूप परिणामती है उसके अनन्त र पूर्व समयमें ही वह उसकी समर्थ उपादान है और जो जिसका समय उपादान होता है वह उसे नियमसे उत्पन्नकरता है ऐसा एकान्त नियम है-समर्थस्य कारणस्य कार्यवस्वमवेति (तस श्ली० पू०६८)। जैसे अयोगिकेवलीके अन्तिम समयमै समय रत्नत्रयरूपसे परिणत आत्मा मोक्ष कार्यका समर्थ उपादान है, इसलिए वह उसे नियमसे उत्पन्न करता है। और उसकी बाह्य सामग्री भी उसके अनुकूल रहती है उसी प्रकार यहाँ भी ऐसा समझना चाहिए कि जब जब स्याही शब्दरूप परिणामकी समर्थ उपादान बनती है तब तब वह नियमसे कागज पर शब्दरूप परिणमन करती है और बाह्य सामग्री भी तदनुकूल उपस्थित रहती है। यह सहज योग है जिसे कोई टाल नहीं सकता, अन्यथा किसी भी द्रश्यका स्वाश्रित परिणमन ही सिद्ध नहीं किया जा सकता और उसके अभाव में अपने पुरुषार्थ द्वारा मुक्तिकी चर्चा करना ही व्यर्थ हो जायगा । अतएव बिजलीके बुझने पर मा शरीरमें भयानक वेदना होने पर यदि स्याहीका परिशमन प्रश्नोंका उत्तर लिखनेरूप नहीं होता तो निश्चयनयसे उस समय स्याही सस कार्यका समर्थ उपादान नहीं है, इसलिए ही वह कार्य नहीं होता यह वस्तु के स्व. रूपका उद्धाटन करनेवाला होनेसे यथार्थ कथन है और बिजली का अभाव होनसे था शरीरमें भयानक वेदना होनेसे प्रश्नों का उत्तर लिखना असम्मत्र हो गया ऐमा कहना उसी अवस्थामें व्यवहार पक्ष माना जा सकता है जब कि बह निश्चय पक्षकी मिद्धि करने वाला हो, अन्यथा यह यस्तु के स्वरूाको ढकनेवाला होनसे अयथार्थपने की हो शोभा व हावेगा । किसी व्यक्ति के बाह्य चारित्र हो और अन्तरंग चारित न हो यह तो है गर अन्तरंग पारित्र हो और बाह्य चारित्र न हो यह नहीं होता। इससे सिद्ध है कि सर्वत्र अपना कार्य समर्थ उपादान ही करता है, बाह्य सामग्री तो निमित्तमात्र है। ४. कोई कीटाणु जब मरकर शरीरके एक भागसे दूसरे भागमें ऋजुगतिसे उत्पन्न होता है तो उसे एक समय लगता है, वही कीटाणु उसी नारीरके दूसरे भागमें यदि विग्रहगतिसे उत्पन्न होता है तो उसे दो समय लगते हैं । किन्तु वही कीटाणु यदि मनुष्य होने के बाद मरकर ऋजुगतिरो सातवें नरकमें जन्म लेता है तो एक समयमें छह राजुकी दूरी पार कर लेता है । और अशरीरी सिद्ध परमेटी उसी एक समयमें सात राजकी दूरी पार कर लेते है । यहाँ न तांगा है, न साइकिल और न है मोटरकार, रेलगाड़ी, हवाई जहाज और अतिस्वन विमान ही। कोई अंतरंग कारण होना चाहिए। जिससे गति में यह विचित्रता आलो है। परमाणुके विषय में तो आगममें यहाँ तक लिखा है कि मन्दगतिसे गमन करनेवाला परमाणु एक समय में आकाशके एक प्रदेशको हो लांघ पाता है जब कि वही परमाणु तीव्रगतिसे गमन करके एक समयमें लोकाकाशके चौदह राजु क्षेत्रको पार कर जाता है अर्थात् रूपर्दा कर लेता है । वहाँ न तो तांगा है, न मोटरकार है, न रेलगाड़ी है और न ही अतिथीन गमन करनेवाला अन्य बाहन ही है। यहाँ तक कि कर्म और नीकर्मका संयोग भी नहीं है । फिर
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy