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________________ ४९२ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्या बाह्य सामग्री उसको उत्पत्तिमें सहायक है यह कथन व्यवहारमात्र है। हमने इस धष्टिको सामने रखकर ही उक्त पञ्चका अर्थ किया है, इसलिए वह तो संगत है ही। यदि दृष्टिको गौण भी कर विचार किया जाय तो उस पद्यक शब्दही स्वयं इस अर्थको प्रकाशित कर देते हैं, क्योंकि सस्यार्थको ध्यान में रखकर ही इस पद्यकी रचना हुई है। १४. कुछ विचारणीय बातोंके क्रमशः उत्तर १. स्त्रीका रज और पुरुषका वीर्ण शरीरका उपादान है और उसे निमित्त कर जीव गर्भ में आता है। । इस प्रकार इन दोनी में निमित्त-नैमित्तिकना बनती है। अपने-अपने कार्य प्रत्येक उपादान है, एक-दूसरेके लिए निमित्त हैं । माताका गर्भाशय इनके लिए निमित्त है। इस प्रकार गर्भमें भ्रूणको वृद्धि होती है । अन्त में वह निसृत होता है, उसमें माताका उचित अवयव निमित होता है। माताके द्वारा भुक्त भोजन भी योग्य परिपाकके बाद इसमें यथायोग्य जगादान-निमित्त बनता है। वन्ध्या स्त्रीको पुरुपका निमित्त तो मिलता है, इसे अस्वीकार नहीं करना चाहिये । सन्तानके उत्पन्न न होनेका अन्य कारण है। विधवा स्त्री में ट्रब्य-पर्वाययोग्यता न होनेसे वह ऐम कार्यके लिए किसी भी हा निमित्त नहीं बनती। इस सम्बन्ध में अधिक लिखना उचित नहीं है। २. समर्थ उपादान असाधारण द्रव्यप्रत्यामत्ति और प्रतिविशिष्ट पर्यायप्रत्यासतिरूप ही होता है। इसलिए उपादानमें अनन्त शक्तियाँ होली है यह लिखता ठीक नहीं। इसलिए किसी शमिलके क्रमसे बिकासका . प्रश्न ही नहीं उठता। भोजनकी सामग्री भत्रितम्यतानुगार परिणमतो है, पुरुषको इच्छानुगार नहीं । वह तो उसमें निमित्तमात्र है। वह सामग्री सर्वथा एक भी नहीं। उसे एक बहना यह व्यवहार है। अतएव जिसे जिगरूप बनना होता है उसे वैसे वाह्य निमित्तोंका योग मिलता है । जो रसोईया या इच्छा रोटीमें निमित्त है वही रसोइया या एच्छा पुडी में नि:मत्त नही है। इसी प्रकार जो आटा पुड़ी बनता है वही आटा रोटी नहीं बनता। यहाँ तो स्गतः स्कन्ध भेद है। अतः मन्त्र कार्य अपनी-अपनी भवितव्यतानुसार हो रहे है और उसी आधार पर निमित्त नमित्तियोग मिल रहा है। यदि पड़ी बनने में निमित्त होनेवाले रसोइया और उसकी इच्छाको तथा रोटी बनने में निमित्त होने वाले रसोइया और उसकी इच्छाको सर्वथा एक मान लिया जाय तो उनको निमित्त कर बनी पुडी और रोटीम भेद नहीं बन सकेगा। और इसी प्रकार पुड़ी और रोटीके आटेको सर्वथा एक भान हिमा जाय तो भी पड़ी और रोटीम भेद नहीं बन सकेगा। स्पष्ट है कि जिस प्रकार पुडी और रोटीका उपादान पृथक्-पृथक् है, इसलिए उनसे पृथक्-थक दो कार्य निष्पन्न हुए है। उसी प्रकार उनको निमित्तभूत बाह्य सामग्री भी पृथक-पृथक् है । 'कारणानुविधायि ही कार्यम्' ऐमा आगमवचन भी है।। ३. कोई भी कार्य अनेक कारणमाध्य होता है। उसमें उपादान स्वयं कार्यरूप परिणमता है। वह उसका मुख्य-निश्चय कता है और बाह्य सामग्री उस में मात्र निमित्त है। प्रत्येक उपादान किस अवस्थामें किस रूप परिणमता है इसका नियम है । इसी निम्मको ध्यान में रखकर प्रत्येक कार्य बाह्य और आभ्यन्तर उपाघिकी समग्रता स्वीकार को गई है । इच्छा, प्रकारा, कागज और लेखनो इनका परिणाम (पर्याय) अपनेम होती है, स्याही में नहीं। स्याही माब्दरूप आकार बनन में उपाशन है, अन्य सब पवहार हेतु है। इससे स्पष्ट है कि इच्छा, प्रकाश, कागज और देखनीने काब्दरूप आकार ग्रहण नहीं किया। स्याहीमें स्वयं परिणम कर बह आकार धारण किया । यदि इच्छा आदि स्याहीसे तन्मय हो जावे तो में उसे परिणभावे, सा होता नहीं, अत: ये स्याही
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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