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________________ E ७८० जयपुर (खानिया ) सवचर्चा देर न लगे कि शुभ परिणाम मात्र बन्धका कारण होनेसे मोक्षमार्ग में हेय है । साक्षात् मुक्तिका कारण तो हो ही नहीं सकता, आंशिक शुद्धिका भी कारण नहीं है । वह परिणाम सम्यग्दृष्टिका ही क्यों न हो, है वह बन्धका ही कारण, क्योंकि मोक्ष या आंशिक शुद्धिके कारणभूत परिणाम से उस परिणामको जाति हो भिन्न है। यदि किसीके पगमें हलकी बेड़ो पड़ी हो, इसलिए कोई उसे देख कर यह कहे कि यह बैड़ी परस्पर अर्थात् कमसे मुक्तिका कारण है तो जैसे यह बात उपहा सास्पद मानो जायगी वैसे ही प्रकृद में जानना चाहिए। अतः आईए मिलकर विचार करें कि आगम में जो शुभ व्रतादिको मुक्तिका कारण कहा है उसका हाथ है। सवार कलश में इस प्रश्नका उत्तर देते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्य remise कर्मभिः कर्म विरागस्य बा किल । भुञ्जानोऽपि न वध्यते ||१३४|| विरागकी ही है कि कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव कर्मोको में वह सामर्थ्य ज्ञानकी ही है अथवा भोगता हुआ भी कमोंसे नहीं बंता ॥१३४॥ इसी तथ्यको और भी स्पष्ट शब्दों समझाते हुए वहीं लिखा है सर्व रागरसवर्जनशीलः । अत्तः स्यात् कर्ममध्यपतितोऽपि तत्वो न ॥ १४९ ॥ वर्जनस्वभाववाला है, इसलिए वह कर्मोंके बीच पड़ा हुआ ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि लिप्य से सकलकर्मभिरेषः ज्ञानी जीव निजरससे ही सर्व रागरसके भी सब प्रकार के कर्मोसे लिप्त नहीं होता ॥१४६॥ शालोकी ऐसी परिणति निरन्तर चलती रहती है। साथ ही इसमें जितनी प्रगाढ़ता आतो जाती है उतनी ही विशुद्धि में वृद्धि होती जाती है तथा कर्मबन्धके निभिसभूत राग-द्वेषादिमें और सुख-दुखपरिणाम में हानि होतो जाती है । यतः ये राग-द्वेषादि परिणाम आत्मविशुद्धिके सद्भाव और उसकी वृद्धि में बाधक नहीं हो पाते, अतः देवादिविषयक और वादि विषयक इन परिणामोंको व्यवहारसे परम्परा मोक्षका हेतु कहा है । ये आत्मशुद्धिको उत्पन्न करते हैं, इसलिए नहीं । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वहीं लिखा है यावत्पाकमुपैति कर्मचिरतिज्ञानस्य सम्प न सा कर्म- ज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्ताव काचितिः । किन्वापि समुल्लसथ्यवशतो यत्कम अन्धाय तत् मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥११०॥ जब तक ज्ञानकी कर्मविरति भलीर्भात परिपूर्णता को नहीं प्राप्त होती तब तक कर्म और ज्ञानका समुच्चय ( मिलकर रहना) भी शास्त्रमें कहा है, इस प्रकार दोनों मिलकर रहने में कोई क्षति नहीं है । किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आत्मामें अपने ( होन पुरुषार्थता के कारण ) जो कर्म प्रगट होता है वह तो बन्धका कारण है और जो परद्रव्य-भावोंसे स्वसः विमुक्त परम ज्ञान है वह एकमात्र मोक्षका हेतु है ।। ११० ।। ये व्रतादिक या अहंदुक्ति आदिक परम्परा मोक्षके हेतु है इसका यह आशय है कि जो ज्ञानी मोक्षके लिए उद्यतमन है जिसने विन्ध्य संयम और सपभारको प्राप्त किया है। किन्तु जो वर्तमान में परम्
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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