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________________ शंका १६ और उसका समाधान ७७९ कि अपर पक्षी व्यवहार धर्म के आधारपर ही निश्चयस्वरूप शुद्धात्माकी प्राप्तिकी जो मान्यता बनी हुई है वह छूट जाय। उक्त गाथाकी आत्मश्याति टोकाको उद्धृत करने का भी हमारा यही आदाय या । ता है कि अपर पाने यह स्वीकार कर लिया है कि 'निर्विकल्प दशामें ये शुभ प्रवृत्तिरूप बाह्य बनादिक नहीं होते।' आत्मस्याति टीकाका आदाय स्पष्ट करते समय हम प्रत, नियम, शील और सप' पदके पूर्व 'बाह्य' पद लगाना छोड़ गये थे। अपर पक्षने इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया, हमें इसकी भी प्रसन्नता है, क्योंकि उस पक्ष द्वारा उक्त तथ्य स्वीकार कर यह स्पष्ट हो जाता है फि निर्विकल्प समाधिरूप रत्नत्रय परिणत आत्मा ही मोक्षका साक्षात् साधन है, व्यवहार क्रियारूप त आदि नहीं। फिर भी अपर पक्ष मन, वचन, कारके व्यापारको परम्परासे मुक्तिका साधन मानता है, इसलिए यह विचारणीय हो आता है कि इस विषय में आगमका आशय क्या है ? यदि परपच 'शुभरूप गन-वचन-कायके व्यापार से व्यमन भाषा वर्मणाकी व पर्याय और औदारिकादि शरीरको क्रिया लेता है तो यह युक्त नहीं है, क्योंकि ये तीनों पुद्गल के परिणाम हैं। वे न तो शुभ होते हैं और न अशुभ यदि अपर पक्ष उक्त पदसे मुख्यतया तीनों योगोंका परिग्रह करता है तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि शुभ परिणाम के कारण हो ये तीनों योग शुभ कहलाते हैं । अतएव परिशेषन्याय से अपर पक्षको इस पद द्वारा शुभ परिणामसे परिणत आत्माको हो ग्रहण करना पड़ेगा | प्रवचनसार गाथा ६ में भी यही कहा है। स्पष्ट है कि जहाँ भी आगम में बाह्य व्रतादिको शुभ कहा है वह उनसे शुभ परिणामरूप व्रतादिको ही ग्रहण किया है। यदि कहीं वचन कायक्रियाको शुभ या अशुभ कहा भी है तो उससे शुभाशुभ काययोग और शुभाशुभ वचनयोगका ही परिग्रह किया है, भाषारूप से परिणत वचनक्रियाका या औवारिकादि शरीरक्रियाका नहीं । अब देखना यह है कि आगम में जो शुभ व्रतादिको परम्परा मोलका हेतु कहा है उसका आशय क्या है ? यद्यपि इम प्रश्नका उत्तर सीधा है कि ये बतादि यदि मोक्षके परम्परा हेतु होते अर्थात् आशिक आत्मशुद्धिके कारण होते और हम प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त कर यह जीव मोच प्राप्त करता होता तो बागम (प्रवचनसार) में यह न लिखा होता कि 'जब यह मारमा राग-द्वेषसे मुक्त होकर शुभ और अतुभरूपसे परिणमता है वय ज्ञानावरणादिवसे कमका बन्य होता है (१७) और यह लिखा होता कि । 'परको लक्ष्य कर किया गया शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है तथा जो परिणाम अन्यको लक्ष्य कर नहीं किया गया है वह दुक्के पाथका कारण है (१८१) दद वो ऐसा विवेश करनेकी आवश्य कता हो नहीं थी कि मे न देह है नमन है, न वानी है उनका कारण नहीं है, कर्ता नहीं है. करानेवाला हूँ, नहीं है और कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ' (१६०) । यह विवेक करानेकी भीमावश्यकता नहीं रह जाती कि 'मैं एक है, शुद्ध हूँ, ज्ञान-वनमय हूँ, अरूपी हूँ। अय परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है' (समयसार या० १८) बस, यह जीव देवादिको भक्ति करता रहे, व्रतादिका पालन करता रहे, उसीसे आंशिक शुद्धि उत्पन्न होकर परम्परा मोक्ष हो जायगी। क्या अपर पक्षने इसका भी कभी विचार किया कि आगम में जो उक्त प्रकारका उपदेश दिया है वह क्यों दिया हूँ ? यदि वह पक्ष गहराई इसका विचार करे तो उसे यह निर्णय करने में
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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