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शंका १० और उसका समाधान
६१५ टीका-मिथ्यात्यापिरतिकशाययोगाः पुद्गलपरिणामाः, शानावरणादिपुद्गलकत्रिवणनिमित्तस्वारिकलावाः । तेषां तु तदास्रवणनिमिसरवनिमिर नया सवाषनोहा। वरनकिल निमिसस्वाद् रागषमोहा एन आस्रवाः ।
-आत्मच्याति टीका गाथाओंका अर्थ टीकाके अर्थस ही समझा जा सकता है, अतः यहाँ टीकाका हो अर्थ दिया जाता है ।
मिथ्यात्व, अदरति, कषाय और योग ये सब पुद्गलके विकार हैं, ये यूंकि ज्ञानावरणादि पुद्गलकमौके मानवमें निमित्त होते हैं. अतः इन्हें आसव नामसे कहा जाता है। पुद्गल के विकारभूत इन मिध्यान्नादिकम शानावरणादि कमकि आवश्णको जो निमित्तसा (कारणता) पायी जातो है. उसके निमित्त जीवके. अज्ञानमय राग, द्वेष और मोहरूप परिणाम है, इसलिये ज्ञानावरणादि कोक आस्रवणके लिय मिथ्यात्वादि गुगल विकारों में पायो जानेवाली निमित्तताको उत्पत्ति में भी कारण होनेसे आत्माके परिणामस्वरूप राग, द्वेष और मोहरूप माव हो अम्रय है।
यहाँ राग, द्वेष और मोहरूप भावोंको ही अज्ञान शब्दका पाच्य अर्थ स्वीकार किया गया है और उन्हींको आसव (बन्धका कारण) कहा गया है।
यदि कहा जाय कि मोह, राग और द्वेष उपयोग (ज्ञान) के ही तो विकार है और वह उपयोग जानावरण कर्मके क्षयोपशमसे ही उत्पन्न होता है, इसलिये अज्ञानमें ज्ञानावरण कर्मक उदयको निमित्त बहना ठीक है, तो इसका उत्तर यह है कि जिस उपयोगके विकारको राग, द्वेष और मोह कहा गया है वह तो ज्ञानावरण कमके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञानभाव ही है, ज्ञानावरण कर्मके सदमसे होनेवाला ज्ञान के अभावरूप अज्ञानभाव वह नहीं है । समयसारमै कहा भी है
उवओगस्स अणाई परिणामा तिणि मोहजुत्तस्स ।
मिच्छत्तं अण्णाणं अधिरदिभावो य णायडवी ॥८॥ अर्थ-मोह कर्मसे युक्त जीवके उपयोग (ज्ञान) के अनादिसे ही मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरतिरूप विकार जानना चाहिये।
गाथाम जो उपयोग शन्द आया है उसका अर्थ ज्ञान ही होता है, ज्ञानका अभाव नहीं। मिथ्यात्व और अविरतिक बीचम जो अज्ञान शब्दका पाठ गाथामें किया गया है वह भी शानके अभावरूप अर्थका बोधक नहीं है। किन्तु उस ज्ञानमावका ही बोधक है जो मोहकमके उदय विकारी हो रहा है।
ऐसा तो प्रतीत नहीं होता कि इतनी मोटी गलती आगमको अजानकारोमै बुद्धिभ्रमस ही की गई हो । वास्तविक बात तो यह मालूम देती है कि मोक्षमार्गमें सिर्फ वस्तुस्वरूपके ज्ञानको ही महत्त्व दिया जा रहा है और चारित्रके विपयमे तो यह ख्याल है कि वह तो अपने श्राप नियति के अनुसार समय कानेपर हो ही जायगा, उसके लिये गुरूपार्थ करनेको आवश्यकता नहीं है। बस । एक यही कारण मालूम देता है कि बन्धके कारणाम शानावरणकमके उदयसे होनेवाले ज्ञान के अभावरूप अशानभावको कारण मानना आवश्यक समझा गया है और यह वाक्य लिखा गया है कि 'ज्ञानावरणादि कर्मोंका उदय अज्ञानरूप जीवके भावोंके होनमे निमित्त है।'
परन्तु यह भी माटो भूलका ही परिणाम है, क्योंकि यदि वस्तुस्वरूपके ज्ञान के लिये पुरुषार्थको महत्त्व दिया जाता है तो 'चारित्र अपने आप हो जायगा --यह सिवान्त संगत नहीं हो सकता है । यदि यह कहा
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