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जयपुर (खानिया ) तस्वथा
तीस दौर
शंका प्रश्न यह था--जीव तथा पुद्गलका एवं द्वयणुक आदि स्कन्धोंका बन्ध वास्तविक है या अवास्तविक ? यदि अयास्तविक है तो केवली भगवान उसे जानते हैं या नहीं ?
प्रतिशंका ३ इस प्रश्न पर आपका उत्तर आ जाने पर उसके आधारपर जो विषय चर्चनीय हो गये थे और जिनका उत्तर आपस प्रारत करनेको भावनासे अपनी प्रतिशंका २ में हमने निबद्ध किये थे, वे निम्नप्रकार है:
१-इस बन्धमै आपने जो परस्पर रद्ध होनेवाले दो द्रव्योंमें परस्पर निमित्तता स्वीकार की है उस परस्पर निमित्ततासे आपका क्या अभिप्राय है?
-विशिष्टतर परस्पर अवगाहसे आपने क्या समझा है?
३-व्यवहारनयका आश्रय लेकर बध होता है इसमें व्यवहारनय और उसको बाध होने में आश्रयताका क्या आशय है ?
४--पृथक् पृथक् दो आदि परमाणुओंमें तथा स्कन्धस्वरूप दो आदि परमाणुओंमें आप क्या अन्तर स्वीकार करते है ? और इस अन्तरको आप वास्तविक मानते हैं या नहीं ?
५-(यदि जगत् अवास्तविक पिण्डरूप है तो) सर्वज्ञको इस अवास्तविक पिडारूप जगत्का ज्ञान होता है या नहीं?
उक्त चचनीय विषयों में से प्रथम चर्चनीय विषयका उत्तर देते हुए यद्यपि आपने स्वीकार किया है कि जीव अज्ञानरूप मोह. राग द्वेष परिणाम तथा योग दृष्यकर्मके बन्धका निमित्त है। लेकिन 'ज्ञानावरणादि कर्मो का उदय अज्ञानरूप जीव भानोंके होने में निमित्त है' यह बाक्य प्रत्युसरमें देखकर तो आश्चर्वका ठिकाना ही नहीं रह सकता है, कारण कि जितने अंशमें ज्ञानावरण कर्मका उदय जीवमें विद्यमान रहता है उससे तो ज्ञानका अभावरूप अज्ञान ही होता है जिसे द्रव्यकर्मके बन्धका कारण न तो आगममें माना गया है और न आप ही ने माना है । आपके द्वितीय वक्तव्यमें स्पष्ट लिखा हुआ है कि 'अज्ञानरूप मोह, राग, द्वेष परिणाम तथा योग द्रव्यकर्म के बन्धके निमित्त हैं। इसमें भागमका भी प्रमाण देखिये..."
मित्तं अविरमण कसाबजोगा य सपणसपणा दु । बहुविहभेया जीवे तस्सेव क्षपणपरिणामा ॥१६॥ जाणावरणादीयस्स ते कम्मरस कारणं होति । तेसि पि होदि जीवो य रागदोसादिमावकरो ।। १६५||
-समयसार आस्त्रवाधिकार