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________________ ६१६ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा जाय कि ज्ञानके साथ पारिवके लिए मो पुरुषार्थ करना चाहिये तो 'भावलिंग होने पर उपलिंग होता है' ( देखो प्रश्न १ का उत्तर ) इस सिद्धान्तको कैसे मान्यता दी जा सकती है ? फिर तो जितना ज्ञानी बनने के लिए जनताको उपदेश दिया जाता है, कमसे कम उतना ही उपदेश चरित्रवान् बनने के लिये भी क्यों नहीं दिया जाता ? तथा आवहारचारिणको बयथार्थ और उपचरित मानते हुए केवल संसारका कारण क्यों कहा जाता है ? वास्तविक बात यह है कि चारित्रका पालन करना तलवारको घारपर चलने के समान है, इसलिए अपने जीवनको कष्टकर भानेवाली प्रवृत्तियों अलग रखकर केवल वस्तुस्वरूपका ज्ञान करने तक सीमित करके भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है - ऐसो धारणा जिसने बना ली हो वह व्यक्ति जीवनके लिये कष्टभावले चारित्र के मार्गपर बसने के लिये क्यों उत्साहित होगा ? लेकिन ऐसे व्यक्तिको यह तीसरी भूल होगी। कारण कि समयसार में इस बातका स्पष्ट कथन किया गया है कि केवल वस्तुस्वरूपका ज्ञान कर लेने से मनुष्य यष्टि नहीं हो सकता है प्रमाण निम्न प्रकार है | किं चयमात्मावयोर्भेदज्ञानं तत्किमशानं किं वा ज्ञानम् ? यथज्ञानं तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । ज्ञानं चेत्, किमात्रचेषु प्रवृतं किं वास्त्रवेभ्यो निवृत्तम् ? आत्रवेषु प्रवृत्तं चेदपिं तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । आसवेभ्यो निवृत्तं तर्हि कथं न ज्ञानादेव श्रधनिरोधः इति निरस्तो अज्ञानांशः क्रियानयः । यस्वात्मादयोर्भेदज्ञानमपि नाखवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशी ज्ञाननयोऽपि निरस्तः । समयसार गाथा ७२ की आत्मख्याति टीका अर्थ – यह जो आत्मा और आलवका भेदज्ञान है उसका ज्ञान उस व्यक्तिको, जो अपने को भेदज्ञानी समझता है, रहता है या नहीं । यदि उस भेदज्ञानका ज्ञान उसे नहीं रहता है तो उस व्यक्ति और जिसे अभी तक आत्मा तथा आसवका भेदज्ञान ही नहीं हुआ है उसमें विशेषता (अन्तर) ही क्या रह जायगी ? यदि कहा जाय कि भेदज्ञानका ज्ञान उस व्यक्तिको रहता है, तो फिर प्रश्न उठता है कि यह व्यक्ति ज्ञानका ज्ञान रखते हुए आस्रवोंमें प्रवृत्ति करता है अथवा आस्रवोंकी प्रवृतियोंको बन्द कर देता है ? यदि कहा जाय उसकी आबो प्रवृत्तियाँ तो होती रहती है, तो फिर भी वही बात होगी कि जिसे अभी तक आत्मा और आस्रव में भेदज्ञान नहीं हो पाया है उस व्यक्ति से इस व्यक्ति में क्या अन्तर रह जायगा ? इसलिये जिसे आम और भेदज्ञान प्राप्त हो चुका है, उसका भेदज्ञान तभी सार्थक होगा, जब कि वह आस्रवोंमें होनेवाली अपनी प्रवृत्तियाँ भी बन्द कर देगा और तभी उस व्यक्तिको ज्ञानसे ही बया निरोध होता है' ऐसा कहना उपयुक्त होगा। इसका आशय यह है कि एक तरफ शान रहित क्रिया करना निरर्थक है तो दूसरी तरफ क्रियारहित जानो निर है। 12: द्वितीय वर्चनीय विषयका उत्तर देते हुए जो विशिष्टतर परस्पर अपगाह' का स्पष्टीकरण किया गया है उससे सिर्फ इतनी बात स्पष्ट होती है कि एक ही क्षेत्र स्थित छहों द्रव्योंका जैसा परस्पर संस्पर्शरूप सम्बन्ध है उससे यह विलक्षण है तथा अन्यत्र जिसे संश्लेष बन्ध लिखा है वहो यह है, परन्तु जब यह कहा व्यवहार किया जाता है और यह भी कहा जाता फिर तो आपकी दृष्टिसे वह कल्पनारोपित हो जाता है कि उस विशिष्टतर परस्पर अवगाह में हो बन्धका हूँ कि वह निमित्तनैमितिकभावके आधारपर ही होता है,
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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