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शंका १० और उसका समाधान
६१७ होगा, क्योंकि निमित्तनैमिकभावन कार्यकारणभाव तथा व्यवहार इन दोनों को आप उपचरित, कल्पनारोपित और अद्भूत हो स्वीकार करते हैं। ऐसी हालत ने छह इत्योंके परस्पर संस्पर्श और विशिष्टतर परस्पर अवगाह इन दोनोंमें अन्तर ही क्या रह जायगा ? यह आप ही जानें ।
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तीसरे चर्चनीय विषयका जो उत्तर अपने दिया है वह निष्प्रकार है
'व्यवहारनवको अपेक्षा से दो द्रव्यां परस्पर निमित्तमात्र से जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह होता है उसे बन्धरूप स्वीकार किया है।'
इस विषय लिया गया था उसमें से 'व्यवहारनया
लेकर यह
पहले उत्तर पत्र में जो पद हटाकर उसमे व्यवहारमयको अपेक्षा से यह पद जोड़ दिया गया है, लेकिन इससे अर्धमे कोई अन्तर नहीं आता है। हमारा कहना तो यह है और जैसा कि हमने ऊपर वर्चनीय विषय दोघे अभी अभी लिखा है कि आपको दृष्टिमेनिमित्तमितिभाव और उपहार दोनों ही जद उपचरित आरोपित और अद्भूत ही हैं तो इनके सहारेपर में भी अद्भूतता आये बिना नहीं रह सपेगी तय व्यवहारमयरूपी शानांशका विषय वह कैसे होगा ? क्योंकि असद्भूत विषय जिसकी कोई सत्ता ही नहीं है यह 'गधे के सींग' तथा "आकाश के फूल के समान ही है, अत: चाहे व्यवहार हो या चाहे मिलन हो, अथवा चाहे केवलज्ञान ही क्यों हो वह किसका भी विषय नहीं हो सकता है 1
记
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चचचनसम्बन्ध में हम आपसे यह कहना है कि आपके द्वारा कही हुई
दो
आदि परमाणुओं स्वभावर्या होती है वह समान भी होती है और विभी होती है यह बात ठीक है, परन्तु 'परस्पर बन्ध हो जानेपर दो आदि परमाणुओं की जो पर्याय होगी, वह विभागपर्याय होगी ' यह बात आपके मतले कैसे संगत होगी ? जब आप बन्धको अवास्तविक मानते हैं, यह बात आपको सोचना है । आगमसम्मत हमारे पक्ष में तो दो द्रव्योंके बन्धमे विभाव पर्यायकी संगति इसलिए बैठ जाती है। कि यह पक्ष बन्ध, व्यवहार, निमित्तनैमित्तकभाव आदिको अपने अपने रूपमें वास्तविक ही स्वीकार करता है।
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पानवीय विषय उसमें आपने लिखा है कि इनमें गया भवास्तविक शब्द प्रमोत्पादक है।' यदि 'अवास्तविक चन्द प्रयोग अग हो सकता है तो उसको भी किया जाता है. परन्तु पहले यह तो मालूम होगा कि बन्यादिकी सत्ता क्या किसी भी रूप में अस्वीकार करने है। अभी तक तो हम इस पर पहुंचे है कि आप बन्धको व्यवहारको और निमिसमैमित्तिकभाव आदि भूत अर्थात् सत्ताहीन ही स्वीकार करते हैं।
आप ससा के स्वरूपसत्ता और उपचरितता ऐसे दो भेद भले ही स्वीकार कर लें, परन्तु जब उपपरिसको आप करोषित हो मानते है तो वह सत्ताहीन ही होगी, फिर ऐने भेद करने से क्या लाभ? हां। यदि पिण्डरूप सत्ताको कोई प्रकार भी सत् मानने को तैयार हैं, जो निर्णय कीजिये कि उसका वह प्रकार क्या हो सकता है । सत्ताहीन पिण्ड तो केवलज्ञानका भो विषय नहीं हो सकता है, जैसे गधे के सीग और आकाश के फूल केवलज्ञानके विषय नहीं होते हैं, इसलिए आपका यह लिखना भी संगत प्रतीत नहीं होता
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