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________________ ६८२ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा गुणोंका समप्रभावसे पालन करनेवाले वीतराग गुरु और वीतराग वाणीमें श्रद्धा-भक्ति नहीं है वह अन्तरंगमें सम्यग्दृष्टि न होनेसे मोक्षका पात्र नहीं हो सकता। यह कथन यथार्थ है। अपर पच यदि परमात्मप्रकाशके इस कथनपर सम्यक् प्रकारसे दृष्टिपात करे तो उसका हम स्वागत ही करेंगे। आचार्य समन्तभदने स्तुतिविद्या में सम्पदृष्टिको जिनदेवमें कैसो भक्ति होनी चाहिये उसे हो सष्ट किया है। पद्मपुराण, उपासकाध्ययन और पयनन्दिपंचविद्याविकाके वचनोंका भी यही आशय है । इसमें सन्देह नहीं कि यथार्थ व्यवहार क्या है और उसका क्या अाय है इसे सम्यग्दृष्टि ही जानता है। आर पक्षने प्रवचनसार गाथा २१७ उपस्थित कर उससे व्यवहारधर्म का समर्थन किया है। किन्तु इस गाथाका यथार्थ भाशय समझनेके लिए उसको टोकापर दृष्टिपात करनेको आवश्यकता है। आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है __अशुद्धोपयोगोऽन्तरंगच्छेदः परप्राणव्यपरोपी बहिरंगः । तत्र प्राणव्यपरोपसभा सदसद्भावे वा तदविनामाविनाप्रयताचारेण प्रसिद्धचदशुद्धोपयोगसद्धावस्य सुनिश्चितहिंसाभावप्रसिद्धः। तथा तद्विना माविना मयताचारेण प्रमियदशुद्धोपयोगासद्धावपरस्य परमाणन्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चितहिंसाभावप्रमिद्धेश्चान्तरंग एव छेदो बलीयान् न पुनर्वहिरंगः । एवमप्यन्तरंगच्छेदायतनमानस्वाद बहिरंगकोदोऽभ्युपगम्येसैष ।।२१७॥ अशुद्धोपयोग अन्तरंग छेद है, परप्राणोंका विच्छेद बहिरंग छेद है । किन्तु वहाँ जिसके अशुद्धोपयोगका अविनाभावो अप्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका सद्भाव है उसके परप्राणोंका विच्छेद होनेपर या न होने पर दोनों अवस्थाओंमें, हिसाभावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है। तथा जिसके अशुखोपयोगके बिना होनेवाले प्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका असद्भाव पाया जाता है उसके परप्राणोंका विच्छेद होनेपर भी, बन्धको अप्रसिद्धि होनेसे हिंसाके अभावको प्रसिद्धि सुनिश्चित है। इससे स्पष्ट है कि अन्तरंग छेद ही बलवान है, बहिरंगच्छेद बलवान नहीं है। ऐसा होनेपर भी अन्तरंग छेदका आयतनमात्र होनसे बहिरंग छेदको स्वीकार करना ही चाहिए। स्पष्ट है कि इस गाथाद्वारा अशदोपयोगमात्रका निषेध कर शद्धोपयोगको प्रसिद्धि की गई है. क्योंकि शुद्धोपयोग बन्धका कारण न होकर स्वयं संवर-निर्जरास्वरूप है। समिति निश्चयस्वरूप भी होती है और व्यवहारस्वहा भी। यहाँ निश्चय समिति बन्धका कारण नहीं है यह दिखलाकर उसको महत्ता प्रस्थापित की गई है यह उक्त कयनका तात्पर्य है। मालम पड़ता है कि अपर पक्षने इस याथाके पूरे बाशयको ध्यान में न लेकर हो यहाँ उसे अपने पक्ष के समर्थन में उपस्थित किया है। हमें विश्वास है कि वह पक्ष वहीं माथा २१६ को आचार्य अमृतचन्द्रकृत टोकाके इस वचनपर दृष्टिपात कर लेगा अशुद्धोपयोगो हि छेदः, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्व छेदनान् । तस्य हिंसनात् स एवं च हिंसा । अशुद्धोपयोग ही छैद है, क्योंकि उससे शुद्धोपयोगस्वरूा श्रमणपने ( मुनिपने ) का छेद होता है और उसकी हिंसा (छेद) होनेसे वही हिंसा है। इससे जहाँ यह ज्ञात होता है कि वास्तवमें शुद्धोपयोगरूप वर्तना ही मुनिपना है, अन्तरंगमें आत्मशुद्धिरूप निर्मलनाके सद्भाव में भी शुभोपयोगको अपेक्षा मुनिपना कहना यह उपचार कथन है, जिसे उसका आयतन होनेसे स्वीकार करना चाहिये । वहाँ यह भी ज्ञात होता है कि परमागममें
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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