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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वाची उर्यभिषार इति खेत, न, तेषां जीवपरिणामानां पारतंत्र्यस्वरूपत्वात । पारतंत्र्यं हि जीवस्य क्रोधादिपरिणामो न पुनः पारतंत्र्यनिमित्तम् ।..आप्तपरीक्षा कारिका ११४-११५ टीका
अर्थ-जो जोवको परतंत्र करते हैं अथवा जोव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते है। अथवा जीवके द्वारा मिथ्यादर्शनादि पणिामांसे जो किये जाते है-उगजित होते हैं के कर्म है 1 के दो प्रकारके हैं-१. द्रव्यकर्म और २. भावकर्म । उनमें द्रव्यकर्म मूल प्रकृतियोंके भेदसे शानावरण आदि आठ प्रकारका है तथा उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे एक-सो अतालीस प्रकारका है तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियोंके भेदसे अनेक प्रकारका है और ये सच पुद्गलपरिणामात्मक है, क्योंकि वे जोवकी परतंत्रतामें कारण है, जैसे निगह (बड़ो) आदि ।
शंका-उपर्युक्त हेतु (जीवकी परतंत्रताका कारण) क्रोधादिके साथ व्यभिषारो है अर्थात् क्रोधादि परतंत्रताके कारण है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि क्रोधादि जीवके परिणाम है और इसलिये वे परतंत्रप्तारूप है---परतंत्रतामें कारण नहीं।
प्रकट है, जीवका क्रोधादि परिणाम स्वयं परतंत्रता है, परतंत्रताका कारण नहीं। अतः उक्त हेतु क्रोधादिके साथ व्यभिचारी नहीं है।
इसी प्रकार लो अकलंकदेव भी जीवको परतंत्रताका मूल कारण कर्मको ही मानते हैं। तदात्मनोऽस्वतंत्रीकरण मूलकारणं । सरवायवार्तिक ५-२४
इन आर्ष वाक्योंके रहते हुए एकान्तसे यह मानना कि जीव, मात्र अपने अज्ञानभावके कारण हो परतंत्र हो रहा है उचित (युक्त) प्रतीत नहीं होता।
इतना ही नहीं थी पं० फूलचन्द्रजी स्वयं कर्मों के कारण जोवकी परतंत्रता स्वीकार करते है--
जीवकी प्रति समयकी परिणति स्वतंत्र न होकर पुद्गलनिमित्तक होती है और पुद्गलकी भी परिणति स्वतंत्र न होकर जीवके परिणामानुसार विविध प्रकारके कमरूपसे होती है । इसीका माम परतंत्रता है। इस तरह जीव पुद्गलके आधीन है और पुद्गल जीवके आधीन।
--विशेषार्थ पंचाध्यायी पृ० १७३ षी प्रन्थमाला श्री पं० फूलचन्द्र जी स्वयं निम्न शब्दों द्वारा जीवको अज्ञान अवस्थाको कर्मजनित स्वीकार करते हैं
संसारी जीव आठ कमोसे बँधा हुआ है, इससे वह अपने स्वरूपको भूला हुआ है और परस्वरूपको अपना मान रहा है।
-विशेषार्थ, पंचाध्यायी पृ० ३३८ वर्णीग्रन्थमाला अब धी पं० फूलचन्द्रजी स्वयं देखें कि उनके द्वितीय वक्तव्यमें और उनके द्वारा लिखे गये आगमानुकूल विशेषार्थमें पूर्वापर विरोध आ रहा है।
यदि मात्र अज्ञानभावको ही परतन्त्र करनेवाला मान लिया जावे तो चौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शन होनेपर अज्ञानभावका नाश हो जानसे १२३ गुणस्थानके शुरूमें अथवा हर प्रकारको सम्पूर्ण अज्ञानता दूर हो जानेसे १३२ गुणत्थानके प्रथम समयमें ही जोत्र स्वतन्त्र हो जाना चाहिये, किन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि जिस समयतक चारों अघातिया कर्मोंका भी नाश नहीं हो जाता है उस समयतक जीव परतन्त्र हो है। इसी बात को श्री विद्यानन्द आचार्य स्पष्टरूपसे कहते है