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शंका १६ और उसका समाधान ननु च ज्ञानावरणदर्णनावरणमोहनीयान्तरायाणामेवानन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्य लक्षणजीवस्वरूपधातिवापार संभ्यनिमित्तावासद्धारास पक्षाध्यापको दा. वनस्पति चैतन्य स्वापवत् इति चेत् ! न, तेषामपि जीपस्वरूपसिद्धत्वप्रतिवन्धिस्वापारतंत्र्यनिमित्तत्त्वोपपत्तेः ।
---आप्तपरीक्ष! पृ. २१६ बीरसेवामंदिर अर्थ--यहाँ शंकाकार कहता है जि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिकम हो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सूख और अनन्त वीर्यप जीवके स्वरूपधानक होनसे परतन्त्रताके कारण है। नाम, गोत्र, बंधनीय और आय ये चार अघातिकर्म नहीं, क्योंकि व नोबके सहपघातक नहीं हैं; अत उनके परतन्त्रताको कारणता असिद्ध है और इसीलिये हेतु पक्षाव्यापक है, जैसे वनस्पतिमें चैतन्य सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया स्वापहेतु ? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि नामादि अघातिकर्म भो जोवके स्वरूप-सिद्धपने के प्रतिबन्धक है और इसीलिये उनके भी परतन्त्रताकी कारणता उत्पन्न है।
इसी बातको श्री अमृतचन्द्र सूरि गंवास्तिकाय गाथा २ को टीकामें जिनवाणीको नमस्कार करते हुए कहते हैं
पारतंत्र्यनिवृत्तिलक्षणस्य निर्वाणस्य। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण होनेपर परतन्त्रतासे निवृत्ति होती है, उससे पूर्व नहीं।
आपके द्वितीय बक्तव्यमें यह लिखा है-'समयसार अध्यात्मको मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाला आगमग्रन्थ है, शेष ग्रन्थ व्यवहारमयकी मुरुपतासे लिने गये हैं। इस सम्बन्ध पंचास्तिकाय गाथा १२३ की टीका के
एवमनया दिशा व्यवहारनयेन कर्मग्रन्धप्रतिपादितजीवगुणमार्गणास्थानादिनपञ्चितविञ्चिाधिकल्परूपैः। ये वचन उद्धृत किये है। इस उल्लेखसे आपने बतलाया कि जिन शास्त्रोंमें जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान आदिरूप विविध भेदोंका कथन किया गया है, जिनमें कर्मग्रन्थ मल्य है, में व्यवहारमयकी मुख्यतासे लिखे गये हैं।
उपर्युक्त वाक्य स्पष्टतया इस प्रकारके अन्तरंग अभिप्रायको द्योतित करता है कि समस्त जन वांइमय (शास्त्रों) में एकमात्र समवमार ही अध्यात्म ग्रन्य होने के कारण सत्यार्थ, प्रामाणिक तथा मान्य है और अन्य समस्त ग्रन्थ (चाहे वह स्वयं श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत भी क्यों न हों) व्यवहारमयकी मुख्यतासे होने के कारण असत्य, अप्रामाणिक एवं अमान्य है, क्योंकि अापके द्वारा व्यवहारनयको कल्पनारोपित, उपचरित या असत्य हो घोषित किया गया है। वरना इस वाक्यको लिम्वनकी जावश्यकता ही न थी। थी समयसारमें भी स्थान-स्थान पर ब्यवहारका कथन है, अत: वह भी अमान्य ही होंगे। इस अपेक्षासे तो यह भी लिखा जाना चाहिये या कि श्री समयसारके भी मात्र यही अंश ग्राह्य है जिनमें केवल निश्चयनयसे कथन है। यह ही तो एकान्त निश्चय मिथ्यावाद है। जो व्यक्ति किसी भी नयको, किसी भी अनुयोगको या जिनवाणोके किसी भी शब्दको नहीं मानता वह सम्पदष्टि नहीं हो सकता है।
-मूलाराधना पृ० १३८ साधारण व्यक्ति भी इस बातको जानता है कि जी जिस नयका विषय होगा, उसका कथन उस ही नयसे हो सकता है, अन्यसे नहीं, और परसापेक्ष प्रत्येक नयका कथन (चाहे यह निश्चय हो या व्यवहार)