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________________ शंका १३ और प्रसका समाधान ६७९ सहचारी भाव है । मात्र इस अभिप्रायसे उसमें निमित्त व्यवहार किया जाता है। उसे साधक कहनेका यही तात्पर्य है। यह आत्मशुद्धिको दान करता है ऐसा अभिप्राय इससे नहीं लेना चाहिये । सम्यग्दृष्टि जीव सदा अरिहन्तादिका पूजक क्यों नहीं बना रहना चाहता इसका कारण भो यही है । अपर पक्षको इस दृष्टिकोणसे विचार करना चाहिये । इससे वस्तुस्थितिके सष्ट होने में देर नहीं लगेगी। अपर पक्षने समाधितन्त्रका प्रमाण उपस्थित कर उसपरसे सह निर्ष फलित किया कि भगगनको लपासना उपासकको भ बना देती है। समाधान यह है कि यदि अपर पक्ष उस वचनका यह आशय समझता है तो वह पक्ष 'उसका भाव यह नहीं कि मैं सदा इसी प्रकार पूजक बना रहूँ।' ऐसा लिखकर भगवान् की उपासनाका निषेष हो क्यों करता है ? जब कि भगवान्को उपासनासे ही उपासक भगवान बन जाता है तो उसे परम ध्यान आदिरूप परिणत होने का भाव नहीं करके मात्र भगवानको उपासना करनी चाहिए, क्योंकि उसीसे वह भगवान बन जायगा? अदि अपर पक्ष इसे नयवचन समझता है तो उसे समाधिशतकसे उस वचनके उसी आशयको ग्रहण करना चाहिए जिमका प्रतिपादन उसमें किया गया है। अपर पक्षने इस अधनके साथ श्लोक ६८ पर हपाल किया ही होगा। इन दोनों को मिला कर पहनेपर क्या तात्पर्य फलित होता है इसके लिए समयसार फलशके इस काव्यपर दृष्टिपात कीजिए एष ज्ञानधनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्य-साधकमान विधकः समुपास्यताम् ॥१५॥ साध्य-साघकभावके भेदसे दो प्रकारका एक यह ज्ञानस्वरूप आत्मा, स्वरूपकी प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको मित्य सेवन करने योग्प है. उसका सेवन करो ||१५|| इसका भावार्थ लिखते हुए पण्ठिलप्रवर राजमलजो लिखते हैं भावार्थ इसौ-जु एक ही जीवद्रव्य कारणरूप तो अपुन ही परिणमै छ, कार्यरूप तो अपुन ही परिणय छ । तिहिते मोक्ष जातां कोई द्वन्यान्तरको सारी नहीं । तिहितें शुद्धात्मानुमव कीजै । इसका चालू हिन्दी में अनुवाद है भावार्थ इस प्रकार है कि एक ही जीवद्रव्य कारणहा भी अपने ही परिणमता है और कार्यरूप भी अपने ही परिणमता है । इस कारण मोक्ष जाने किमो द्रव्यान्तरका सहारा नहीं है, इसलिए शुद्ध आत्माका अनुभव करना चाहिये। मोक्षप्राभृत गाथा ४८ में परमात्मा पदका अर्थ 'ज्ञानधनस्वरूप निज आत्मा है। उसका ध्यान करनेसे अर्थात तत्स्वरूप हो जानेसे यह जोत्र सब दोषोंसे मत हो जाता है और उसके नये कम आनन नहीं होता।' ऐसा किया है। अपर पक्षने प्रवचनसार गाथा ८. को उपस्थितकर इसका अर्थ भर दे दिया है और इसके बाद उसे स्पर्श किये बिना व्यापारीका उदाहरण देकर अपने अभिमतका समर्थन किया है। गाथा में यह कहा गया है कि जो अरिहन्तको जानता है वह माने आत्माको जानता है। अर्थात् बरिहन्तका ज्ञान अपने प्रात्माका शान करने में निमित्त है। इसमें यह तो कहा नहीं गया है कि जो अरिहन्तके अवलम्बनसे पूजा-भक्तिरूप प्रवर्सता रहता है उसके परमात्मस्वरूप नायकभावके अवलम्बनरूपसे न प्रवर्तने पर भी मोहका समल नाश
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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