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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा मात्र इतना दिखलाना प्रयोजन है कि स्वभाव पर्यायकी उत्पत्तिके समय उससे पूर्व जो विभाव पर्यायके निमित्त थे उनका वहाँ अभाव है।
यह तो आगम परिपाटो को जाननेवाले अच्छी तरहसे जानते हैं कि मोहनीय कर्म का क्षय १०वें गुणस्थानके अन्त में होता है और ज्ञानाबरणादि तीन कर्मीका क्षय १२वें गुणस्थानके अन्तमें होता है। फिर भी केवलज्ञानको उत्पत्ति के कथनके प्रसंग मोहनीय कर्मके क्षयका भी हेतुहासे निर्देश किया गया है। ऐसो अवस्थामें क्या यह मानना उचित होगा कि मोहनीन कर्मका क्षय होकर जो अकर्मरूप पुद्गल वर्गणायें हैं वे भी केवलज्ञानकी उत्पत्ति में निमित्त है। मेरी नम्र सम्मतिमें उक्त वचनका ऐमा अर्थ करना उचित नहीं होगा । अतएव पूर्वमें उक्त प्रश्नका जो उत्तर दे आये है यहो प्रकृतमें समोचीन प्रतीत होता है।
ततीय दौर
शंका १५ जब अभावनतुष्टय वस्तुस्वरूप हैं ( भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मः ) तो वे कार्य व कारणरूप क्यों नहीं माने जा सकते ? तदनुसार घातियाकर्मोका ध्वंस केवलझानको क्यों उत्पन्न नहीं करता?
इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमें आपके द्वारा यह तो स्वीकृत कर लिया गया था कि 'चारों प्रकारके अभावों ( अभाव चतुष्टय )को भावान्तरस्वभाव स्वीकृत किया है। किन्तु 'चार धातिया कोका वंस केबलशानको उत्पन्न करता है' इसको स्वीकार नहीं किया गया था। और आपने यह भी लिखा था कि ऐसा निर्देश आगममें दृष्टिगोचर नहीं होता।
आपके इस प्रथम उत्तरको ध्यानमें रखकर श्री तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि तथा राजबार्तिक आदि अन्योंके प्रमाण उद्धत करते हुए यह बतलाया गया था कि श्री उमास्वामो आचार्य, श्री पूज्यवाद स्वामी, श्री अकलंकदेव और श्री कुन्दकुन्द स्वामीने कमोंके सयसे क्षामिकभाव तथा केवलज्ञानकी उत्पत्ति कही है. परन्तु उस ओर आपको फिर भी दृष्टि नहीं गई । यहाँ यही प्रतीत होता है कि आप अभावका कारण नही मानना चाहते हैं। परन्तु जब हम आगमको देखते हैं तब जगह अगह अभावको कारणरूप स्वोकृत किया गया देखते हैं, क्योंकि अभाव तुच्छाभावप नहीं है, किन्तु भावान्तरस्वभाव है। इस संदर्भ में आप समन्तभद्र स्वामौका युक्त्यनुशासनमें निम्नांकित समुल्लेख देखिए---
भवस्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भाषान्तरं भाववदहतस्ते ।
प्रमीयते च व्यपदिश्यते च षस्थव्यवस्थांगममयमम्बत् ॥५५॥ अर्थ-हे चोर अर्हन् ! आपके मतमें अभाव भी वस्तुधर्म होता है। यदि वह अभावधर्म का अभाव न