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________________ शंका १५ और उसका समाधान ७०३ होकर धर्मीका अभाव है तो वह भावकी तरह भावान्तर होता है और इस सबका कारण यह है कि अभावको प्रमाणसे जाना जाता है व्यपदिष्ट किया जाता है तथा वस्तुव्यवस्थाके अंगरूप में निर्दिष्ट किया जाता है। जो अभावतस्व] वस्तुयवस्थाका अंग नहीं है वह मावेकान्तको तरह अप्रमेय ही है। धवला पुस्तक ७ पृ० ६० पर-याए बद्धी || सूत्रका व्यायाम करते हुए धोवीरसेन स्वामी लिखते है पण च केवलावरणखओ तुच्छो ति ण जयसे, केवलप्पाणावरणबंधसंतोदयाभावस्स अनंतरि-वेरसम्म दिगुणेहिं जीवस्य तुच्छतविरोद्वादो भावस्स-अभाव ण विरूदे भावाभावreator विस्ससेणेव सध्वम्यणा आलिंगिकणाहिदाणमुत्रलं भादो ण च उनलंभमाणे विरोधो अस्थि अवलद्विवियरस तस्स उवली अमितविरोहादी | अर्थ-आधिक सिसे जीवन होता है ॥४७॥ केवलज्ञानावरणका लय तुच्छ अर्थात् अभावरूपमात्र है, इसलिये यह कोई कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता, ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, केवलज्ञानावरण के अन्त्र, सत्व और उदयके अभाव सहित तथा अनन्तवीर्यवैराग्य सम्यक्त्व व दर्शन आदि गुणोंसे युक्त जीव द्रव्यको तुच्छ माननेमें विशेष आता है किसी भावको अभावरूप मानना विरोधी बात नहीं है, क्योंकि भाव और अभाव स्वभावते ही एक दूसरेको सम रूपसे आलिंगन करके स्थित पाये जाते है जो बात पाई जाती है उसमें विरोध नहीं रहता, क्योंकि, विशेष का विषय अनुपलब्धि है और इसलिए जहाँ जिस वातको उपलब्ध होती है उसमें फिर विरोधका अस्तित्व मानने में ही विशेष बाता है। इस सन्दर्भों को देखते हुए आशा है आप पुनः विचार करेंगे। यो उमास्वामी आचार्य के मोक्षाज्ञानदर्शनावरणान्तरापक्षयाणा केवलम् । - त० सू० अ० १० सू० १ अर्थात महका क्षय होनेके बाद ज्ञानावरण दर्शनावरण, और अतरायके क्षयले केवलज्ञान उत्पन्न होता है।.... इन वाक्यों पर आपके द्वारा यह आपत्ति उठाई गई है कि 'मोहनीय कर्मका क्षय दश गुणस्थान के अन्त में होता है और ज्ञानावरणादि तीन कमौका जय बारहवें गुणस्थानके अस्तु होता हैं, फिर भी केवलज्ञानको उत्पत्ति के कथन के प्रसंग में मोहनीय कर्मके क्षयको भी हेतुरूपसे निर्देश किया गया हैं। ऐसी अवस्थामें क्या यह मानना उचित होगा कि मोहनीय कर्मका क्षय होकर जो अकर्मरूप पुल वर्गपुद्गल जाएँ हैं वे भी केवलज्ञानकी उत्पत्ति निमित्त हैं।' इस विषय में हमारा नम्र निवेदन यह है कि श्री उमास्वामी महान् विद्वान् बाचार्य हुए हैं। उन्होंने सागरको गागर में बन्द कर दिया कर्यात् द्वादशांगको दशाध्याय सूत्रमें गुम्फित कर दिया। हमको आशा नहीं थो कि ऐसे महान् आषायके वचनों पर भी पाप आपत्ति डालकर खण्डन करनेका प्रयास करेंगे। यदि आप इस सूत्र पर सर्वार्थसिद्धि टोका देखनेका प्रयास करते तो सम्भव या कि सूत्रके लण्ड पर आपकी लेखनी नहीं बनती। शंका की गई कि 'मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायशया केवलम् यह सूत्र बनाना चाहिये था क्योंकि ऐसा करनेसे सूत्र हलका हो जाता ? इसका उत्तर देते हुए श्री पूज्यपाद स्वामी लिखते है- क्षयक्रमप्रतिपादनार्थी वाक्यमेदेन निर्देशः क्रियते । प्रागेव मोहं क्षयमुपनीयान्तमुहूर्त क्षीणकषाय
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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