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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा म्यपदेशमघाप्य ततो युगज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणां क्षयं कृत्वा केवलमवाप्नोति इति तत्क्षयो हेतुः केवलोत्पत्तेरिति हेतुलक्षणे विभकि-निर्देशः कृतः ।
-स. सि., अ. १०, सू० । अर्थ-क्षयके क्रमका कथन करने के लिये वाक्योंका भेद करके निर्देश किया है । पहले ही मोहका क्षय करके अन्तमहतं कालतक क्षोणकषाय संज्ञाको प्राप्त होकर अनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराम कर्मका एक साथ क्षय करके केवलज्ञानको प्राप्त होता है। इन वोका खय केवलज्ञानकी उत्पत्तिका हेतू है ऐसा जानकर 'हेतुरूप' विभक्तिका निर्देश किया है।
इस सूत्रसे सिद्ध होता है कि मोहनीयकर्म का क्षय ज्ञानाचरणादि तोन चातिया फोंके क्षयका कारण है और उनके क्षय से केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न होता है। अतः मोहनीय कमका क्षय केवलज्ञानको उत्पत्तिमें साक्षात् कारण नहीं है।
प्रायः केवलज्ञानको उत्पत्ति में ज्ञानावरणके शयको अभावरून तुच्छ वस्तु बताकर कारणताका निषेध कर देते हैं । उसका समाधान यह है कि अभाव तुच्छरूप नहीं है, किसी भावान्तररूप ही है। चाहे यह पुद्गलका रूपान्तर ही हो, जब वह प्रतिबन्धात्मकताको छोड़कर प्रतिबन्धाकाभावरूपमें ढल जाता है तब ही ज्ञान उत्पन्न होता है। उस प्रतिबन्धकामावरूप सहकारी कारणके बिना भी शान नहीं उत्पन्न होता । इसलिये बह ज्ञानका (सहायक) कारण अवश्य है, प्रतिबन्धकाभावको तुच्छ बसाकर कारणतासे हटाना अज्ञानमूलक बात है। घातिया कर्मोके क्षयसे केवलज्ञान (अहंत पद) प्राप्त होता है यह बात स्वीकार करते हुए आपने स्वयं इस सूत्रको प्रश्न नं०१३ के उत्तर में उद्धृत किया है।
बाधक कारणों का अभाव भी कार्योत्पत्तिमं कारण होता है जैसा कि मूलाराधना गाथा ४ की टीकामें कहा है
अन्वय-व्यतिरेकसमधिगम्यो हि तफलभावः स एच । तावन्तरण हेतुना प्रतिज्ञामाग्रत एव । कस्यचिस्मा वस्तुचिन्तायामनुपयोगिनीति प्रतिबन्धकसभावानुमानमागमेऽभिमते सावदसति न घटते ।
अर्थ-जगतमें पदार्थों का सम्पूर्ण कार्य-कारणभाव अन्वय-व्यतिरेकसे जाना जाता है 1 अन्वय व्यतिरेकके बिना कोई पदार्थ किसीका कारण मानना केवल प्रतिमामात्र ही है। ऐसी प्रतिज्ञा वस्तुके विचारके कुछ भी उपयोगी नहीं है। आगममें स्पष्ट है कि प्रतिबन्धक कारणोंसे कार्यको उत्पत्ति नहीं होती। जैसे सहकारी कारणोंके अभावमें कार्य सिद्ध नहीं होता वैसे ही प्रतिबन्धक कारणोंके सद्भाव में कार्य नहीं होता । सार यह है कि सहकारी कारण होते हए यदि प्रतिबन्धक कारणोंका अभाव होगा तो कार्य सिद्ध होगा, अन्यथा नहीं। . स्वयं श्रीमान् प० फूलचन्द्रने भी मोक्षशास्त्र पृ० ४५५ (वर्णी ग्रन्थमाला) पर लिखा है
बात यह है कि जितने भी क्षायिकमाव है वे सब आरमाके निजभाष हैं पर संसारदशाम चे कर्मोसे घातित रहते है और ज्यों ही उसके प्रतिबन्धक कर्मोका अभाव होता है त्यों ही वे प्रकट हो जाते हैं।
इस आगमसे सिद्ध होता है कि प्रतिबन्धकके अभावसे कार्यको सिद्ध होती है। केवलज्ञान तो आत्माको शक्तिरूपसे द्रध्याथिकनगको अपेक्षा प्रत्येक आत्मामें है जो ज्ञानावरण कर्मोदय के कारण उवक्त नहीं हो पाता । ज्ञानावरण कर्मरूपो बाधक कारणोंका भय हो जानेसे व्यक्त हो जाता है । अत: ज्ञानावरणादि घातिया कोका क्षय केवलज्ञानकी उत्पत्ति कारण है यह हमारे मूल प्रश्नका उत्तर है।