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________________ शंका १५ और उसका समाधान ७०५ आपने अप्रासंगिक यह लिख दिया है कि 'हमारी संसारकी परिपाटी चल रही है उसमें हम स्वयं अपराधी है।' यहाँपर यह विचार करना है कि 'अपराध' क्या मात्वाका स्वभाव है या आगन्तुक विभाग ( विकारी भाव ) है ? उपयोग के समान यदि अपराधको भी आरमका कालिक स्वभाव मान लिया जावे तो उसका कभी नाश नहीं होगा और आगन्तुक विभाव है तो वह अवश्य ही कारणजन्य होगा। सिद्धान्ततः रागादि अपराध आवन्तु होनेसे परसंग हो उपमाने गये है। जैसा कि माटकलमपसार अमृतचन्द्र स्वामीका वचन है बन्धाधिकार अर्थ - आत्मा स्वयं ही अपने रागादि विकारका निमित नहीं होता, उसमें अवश्य ही परपदार्थका रांग कारण है। जिस प्रकार कि सूर्यकान्तमणि स्वयं अग्निका निमित नहीं है, किन्तु उसके उत्पन होने में सूर्य रश्मियोका सम्पर्क कारण है। वस्तुका यही स्वभाव है। इससे सिद्ध होता है कि हमारा अपराधी होना भी मोहनीय कर्मोदपके अधीन है। जब तक माहोय कर्मकाय नहीं होता तब तक अपराध अवश्य बना रहेगा, क्योंकि निभिसभामाका अभाव सम्भव नहीं है । क्षय पुनश्च मोहपाशान दर्शनावरणन्तरायचयान केवल स्वार्थसूत्र अध्याय १० सूत्रका खण्डन करते हुए आपसे यह युक्ति दी थी कि 'मोहनीय कर्मका दस गुणस्थानके अस्त होता है और जाना वरणादि तीन कर्मका क्षय बारहवें गुणस्थान के अन्तमें होता है फिर भी केवलज्ञानकी उत्पत्तिकथनके प्रसंग मोहनीय कर्मके अबको हेनुरूपसे निर्देश किया गया है। इसका उत्तर सर्वसिद्धिका उल्लेख करते हुए श्री पूज्यपाद आचार्यके वचनों द्वारा दिया जा चुका है। किन्तु इस आपत्ति के विरुद्ध श्री पं० फूलचन्द्रजी स्वयं इस प्रकार लिखते हैं — न जातु समादिनिमितभावमामात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिनिमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ५१३॥ दूर इस कैवल्य प्राप्तिर्फ लिये उसके प्रतिवन्धक कसौंका दूर किया जाना आवश्यक है, क्योंकि उनको किये बिना इसकी प्राप्ति सम्भव नहीं । वे प्रतिबन्धक कसे चार हैं। जिनमें से पहले मोहनीय कर्मका क्षय होता है। यद्यपि मोहनीय कर्म केवल्य अवस्थाका सांधा प्रतिबन्ध नहीं करता है तथापि इसका अभाव हुए बिना शेष कमोंका अभाव नहीं होता, इसलिए यह भी कैवल्य अवस्थाका प्रतिबन्धक माना । इस प्रकार मोहनीयका अभाव हो जानेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में तीनों कर्मीका नाश होता है और तत्र जाकर Three स्था प्राप्त होती है। ० सू० पृ० ४५२४५२ पण प्रथन: डा ८९
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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