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मंगलं मंगलं
जयपुर (खानिया) तस्त्वचर्चा
भगवान् वीरो मंग कुन्दकुन्दाय कुन्दकुन्दायों जैन धर्मोऽस्तु
गौतमो गणी । मंगलम् ॥
शंका १५
जब अभाव चतुष्टय वस्तुस्वरूप है ( भवत्यभावाऽपि च वस्तुधर्मः ) तो वे कार्य व कारणरूप क्यों नहीं माने जा सकते ? तदनुसार घाटियाकमका ध्वंस केवलज्ञानको क्यों उत्पन्न नहीं करता १
प्रतिशंका ३ का समाधान
इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमे यह बतला दिया गया था कि 'प्रकुल में ध्वंसका अर्थ सर्वथा भावान्तर स्वभाव लेने पर प्रातिकमोंको अकर्म पर्यायको केवलज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्त का मानना पड़ेगा जो आमम्मत नहीं है। अतः हो नभात निति से उनका पाल (वय) होने पर अज्ञान भावका अभाव हो गया और केवलज्ञान स्वभावसे प्रगट हो गया यह अर्थ करना महत संगत होगा ।'
यथा
इस पर प्रतिका करते हुए प्रतिशंका २ में मुख्यरूपसे पातिकमौका ध्वंस ( अकर्मरूपता ) केवल ज्ञान के प्रगट होनेमे निमित्त है यह स्वीकार किया गया है। इसमें अन्य जितना व्याख्यान है वह इसी अर्थको पुष्टि करता है।
इसके उत्तर में पुनः प्रथम उत्तरको पुष्टि की गई। साथमें दूसरी आपत्ति भी उपस्थित की गई । तत्काल प्रतियांका सामने है । उसमें सर्वप्रथम हमारी ओर से चारों अभावोंको भावान्तर स्वभाव स्वीकार करनेकी जहाँ एक और दुष्ट को गई है वहीं दूसरी ओर हमारे ऊपर यह आरोप भी किया गया है कि 'चार घातिया कर्मोंके ध्वंसे केवलज्ञान होता है इस प्रकारका वचन आगम नहीं उपलब्ध होठा' ऐसा हम उत्तर में लिख आये है किन्तु जब हमने पूर्वके दोनों उत्तर बारीकी से देखे हो विदित हुआ कि बात कोई दूसरी है और उसे छिपाने के लिए यह उपक्रम किया गया है, इसलिए यहाँ सर्वप्रथम हम अपने उत्तरके उस अंशको उद्भुत कर देना चाहते है जिसके आधार ऐसा आरोप किया गया है वह वहले इस प्रकार हैकिन्तु प्रकृतमें चार घातिकर्मोके ध्वंसका अर्थ भावान्तर स्वभाव करने पर कर्मके ध्वंसाभावरूप अक्रमं पर्यापको केवलज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्त स्वीकार करना पड़ेगा। जिसका निमित्तरूप निर्देश आगममं दृष्टिगोचर नहीं होता ।' ( प्रथम उत्तर से उद्धृत )
इस उत्तर में 'प्रकृत में ' यह पद ध्यान देने योग्य है । इस द्वारा यह बतलाया गया है कि यद्यपि 'ब्वंस' भावान्तर स्वभाव होता है इसमें सन्देह नहीं पर प्रकृत उसका मह अर्थ नहीं लेना है। अब इस अंश प्रकाशमें प्रतिशंका ३ के उस अंशको पढ़िए जिसे हमारा कथन बतलाया गया है ।
'आपके द्वारा '''''''' किन्तु चार घातिया कर्मोौका ध्वंस केवलज्ञानको उप करता है इसको नहीं स्वीकार किया गया था । और आपने यह भी लिखा था कि ऐसा निर्देश आगम में दृष्टिगोचर नहीं होता ।' ये दोनों उल्लेख हैं। इन्हें पढ़ने यह भलो त ज्ञात हो जाता है कि इन दोनोंमें कितना अन्तर है जहाँ शंकाकार पक्षको भावान्तर स्वभाव लिखकर अकर्मक की उत्पतिका जनक