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________________ ६५४ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा मल-मूत्र आदि मलोंको बढ़ानेवाला कहा गया है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उस द्वारा १००८ सुलक्षणोंके घारी उत्तम संहनन्दवाले जगत्पूज्य तीर्थंकरके शरीरको निन्दा की गई है। स्पष्ट है कि जहाँ जो उपदेश जिस अभिप्रायसे दिया गया हो वहीं उस अभिप्रायसे उसे शास्त्रोक्त मानना चाहिये । द्वितीय दौर : 2: शंका १३ प्रश्न था कि पुण्यका फल जब अन्त होना तक कहा गया है ( 'पुण्यफला अरहंता' प्र० स० ) और जिससे यह आत्मा तीन लोकका अधिपति बनता है, उसे सर्वातिशायी पुण्य बतलाया है (सर्वातिशात्रिं पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतिव्वकृत् ) तब ऐसे पुण्यको होनोपमा देकर त्याज्य कहना और मानता क्या शास्त्रोक्त है ? प्रतिशंका २ हमारा यह प्रश्न हेतुर्गाभित था 'पुण्य क्यों ग्राह्य है ? - त्याज्य क्यों नहीं है ?' इस बातको सिद्ध करने के लिये हमारे इनमें दो शास्त्रीय वाक्योंके साथ सुन्दर हेतु भी उसी प्रश्न में यथास्थान विद्यमान है । आप यदि उनपर निष्पक्ष भाव से दृष्टिपात करते तो पुण्यके महत्त्व और उसको उपयोगिताको अवश्य निःसंकोच स्वीकार करते। आपने ऐसा नहीं किया । संसारी भव्य प्राणी, जोकि यथार्थ में अपना हितैषी है, उसका उद्देश्य सदा यहाँ रहता है कि मैं अरहंत पद प्राप्त करके जगत्का लक्ष्धार करूँ और मुक्ति प्राप्त कर स्वयं सर्वोच्च नित्य-अन्यायाध सुखी, पूर्ण जातादृष्टश नूँ । बुद्धिमान् भव्य प्राणका यह पुनीत उद्देश्य पुण्य क्रियाओं द्वारा ही सिद्ध हुआ करता है । यह एक निर्विवाद सर्वशास्त्रसंमत बात है; इसी बात को हमारे सर्वोच्च आध्यात्मिक आचार्य श्री कुन्दकुन्दने सर्वमान्य ग्रन्थ प्रवचनसार में 'पुण्यफला अरहंता' आदि ४५ वीं गाया द्वारा स्पष्ट एवं समर्पित किया है । कुन्दकुद आचार्य प्रत्येक मक्तको निष्पक्ष भाग एवं शुद्धभाव से उस उल्लेखको उपेक्षा नहीं करना चाहिये । आपने उत्तर देते समय आध्यात्मिक वाचायके उक्त नष्ट संकेतपर दृष्टिपात नहीं किया और न उसपर अपना अभिमत हो प्रकट किया। यह स्वयं एक चिन्तनोप वार्ता है जो कि बोतराम चर्चाका एक विशेष अंग है ! हमारे लिये आर्ष वाक्य ही तो पथप्रदर्शक हैं उनके अवलम्बनसे ही हमको सिद्धान्त निर्णय करना है । आपने अपने लेख में उत्तर देते हुए प्रारम्भमें जो यह लिखा है कि 'सर्वत्र प्रयोजनके अनुसार उपदेश दिया जाता है, ऐसी उपदेश देनेकी पद्धति है ।'
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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