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शंका १३ और उसका समाधान
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हम इसे हृदयसे स्वीकार करते हैं, परन्तु आप अपनी इस मान्यता पर ही गंभीरता से विचार कर प्रकाश डालें कि जो बात चतुर्थ कालमें भो ग्राह्य थी वह वर्तमान अवनत युग में अग्राह्म या त्याज्य कैसे हो गई ? जिससे पुण्यको त्याज्य बतलानेकी आवश्यकता आज प्रतीत होने लगी। मानवोचित कत्र्तव्य से प्रायः विमुख आज कलकी जनता के लिए तो पुण्याचरणकी मोक्षगमन के योग्य चतुर्थकालकी अपेक्षा और भी अधिक आवश्यकता है ।
जिस काल में तीर्थकर, सामान्य केवली तथा चरमवारी महर्षियोंका समागम सुलभ था, उस चतुर्थकालमें वे आत्मशुद्धिके लिए जनसाधारणको आचरण करनेका उपदेश देते थे, जिससे प्रभावित होकर चक्रवर्ती सम्राट् तक उसे शिरोधार्य करके महाव्रती पुष्पाचरण करते हुए अपना मनुष्यभन सफल किया करते थे, शुभभावमय पुण्य चारित्रका अवलम्बन लेकर महान् बहिरङ्ग अन्तरङ्ग तपश्चरण करते हुए शुद्धभाव पाकर मुक्ति प्राप्त किया करते थे, भरतचक्रवर्ती, बाहूबली आदिको पुण्यचर्या सर्वविदित है । 'तत्र मुक्ति प्राप्ति के लिए शारीरिक तथा मानसिक क्षमताके अयोग्य निकृष्ट पश्चमकालमें उस परम्परा मोक्षदायक पुण्यभावका उपदेश त्याज्य हो' यह एक महान बाश्चर्यजनक बात इसलिये भी है कि आजके प्राणी के लिए आत्मकल्याणार्थ सिवाय पुण्याचरणके अन्य कोई मार्ग अवशिष्ट नहीं, तथा च आजका सर्वोच्च कोटिका आध्यात्मिक उपदेष्टा भी, स्वयं न तो पुण्य कर्म के शुभफलको त्याग सकता है, न वह पुण्याचरणके सिवाय अन्य कोई उच्च कोटिका शुद्धोपयोगी आचरण कर सकता है, और न वह आत्महित के लिए पुण्यत्रन्धके सिवाय अन्य कुछ ( सर्व कर्मविध्वंस) कर सकता है। तब बतलाइये कि यदि वह दूसरोंको पुण्यावरण त्याग देनेका उपदेश दे तो उसका उपदेश आज कलकी पात्रता के अनुसार क्या उचित माना जाता है ? क्या आज के श्रोताकी पात्रता चतुर्थकालसे भी उच्च है ?
इन बड़े टाईप मुद्रित वाक्योंपर निष्पक्ष स्पष्ट प्रकाश डालेंगे ऐसी वाञ्छनीय भाषा है । आपने जो अपने पक्ष पोषण में समयसार ग्रन्थको १४५ वीं गाथा उपस्थित की है, उस गाथा के रहस्य को स्पष्ट बतलानेवाली श्री अमृतचन्द्र सूरिकी टीवनको देखनेका भी यदि आप कष्ट करते तो आशा है पुण्यपोषक इस पथ का उल्लेख करनेका प्रयास माग कभी न करते टीकाकारने शुभ-अशुभ भाव के अनेक विकल्प करके अन्तिम वाक्य जो लिखा है वह मननीय है। टीककार ऋषि लिखते हैं
शुभाशुभौ मोक्ष अन्धमार्गीं तु प्रत्येकं केवलजीवपुद्गलम ग्रत्वादनेकौ तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म ।
अर्थ — शुभ तथा अशुभ ( क्रमशः) मोक्षका और बन्धका मार्ग है ( अर्थात् शुभ मोक्षका मार्ग है जब कि अशुभ बन्धका मार्ग हैं ) । अतः दोनों पृथक हैं, किन्तु केवल जीवमय तो मा मार्ग है और केवल पुद्गलमय बन्धका मार्ग है । वे अनेक हैं एक नहीं है, उनके एक न होने पर भी केवल पुद्गलमय वन्यमार्गको आतितके कारण बावके अभेदसे कर्म एक ही है।
इस प्रकार इस गाथाकी टीकाका अभिप्राय जीवमय पुण्यको मोक्षमार्ग बतलाकर पुण्यकी उपादेयता - की पुष्टि करता है। अतः यह टीका आपके उद्देश्यके विपरीत है ।
इसके अनन्तर आपने अपने पाको पुष्ट करनेके लिए उसी समयसार ग्रन्थको एकसी सैंतालीसवीं गाथा उपस्थित को है, किन्तु उसको उपस्थित करते समय सम्भवतः आपने यह विचार करनेका कष्ट नहीं