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________________ शंका ९९ ओर उसका समाधान ६३७ वस्तु परिननको नहीं स्वीकार किया गया है और यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गांधा ११८ में पुद्गल के कर्मरूपसे परिणमित होने के सिलसिले में तथा गाया १२३ में जीवद्रव्य क्राधादि रूपसे परिणति होने के सिलसिले में यह बात स्पष्ट कर दी है कि केवल प्रत्यय परिणमत नहीं हो सकता है । वे गाथायें निम्न प्रकार हैं जीवो परिणामयदे पुग्गलदव्याणि कम्मभावेण । ते सयमपरिणमंते कहं णु परिणामयदि वेदा ||११|| अर्थ- जो यदि पुद्गल द्रव्यको कर्मभाव परिणत कराता है तो जग पुद्गल की परिणत होनेकी योग्यता के अभाव में जो उसको कैसे (कर्म) परिकरा सकता है? इसी प्रकार - गलकम्मं कोही जीवं परिणाम एदि कोहस । सं सयमपरिणमंत कहं णु परिणामयदि कोहो ॥२३॥ अर्थ — क्रोधरूप पुद्गल परिणत होनेकी योग्यता के सकता है ? कर्म यदि जीवको क्रोधभावमं परिणत कराता है तो उस जीव में अपनी निज अभाव में वह पूगल कर्म क्रोध उसको कैसे (कोपरूप ) परिणत करा आचार्य अमृतचन्द्रने भो उक्त गाथाओंको व्याप करते हुए अपनी आत्मस्वाति टीकाएँ लिखा है--- नवत्स्वयमपरिणमानं परेण परिणामनिपात अर्थ -- जिसमें परिणत होने की निजी योग्यता नहीं है उसे दूसरा कैसे परिणत करा सकता है ? अर्थात् नहीं करा सकता है | यही बात आचार्य अमृतचन्दने गाथा १२३ की व्याख्या करते हुए उक्त टीका भी लिखी है। इस प्रकार जीवके ज्ञानगुणके यह्य पदार्थों के जाननेरूप उपयोगाकार परिणमनको तथा धर्मादि द्रव्योंके गतिहेतुत्यादि गुणोंके जीयों और गालोंकी गति आदिके आधार पर होनेवाले परिणामोंको स्वाभाविक स्व परप्रत्यय परिणमन ही कहना चाहियें। इन्हें वैभाविक स्वपरप्रत्यय परिणमन इसलिये नहीं कहा जा सकता है कि ये सब परिणमनविभावरूप परिणम नहीं है स्वपरिणमन भी इन्हें ये नहीं कहा जा सकता है कि इन परिधमनोंमें एक तो पकी में स्वीकार की गयी है, दूसरे आगममें जहाँ भी स्वप्रत्यय परिणमा कम मिलता है वहां सर्वत्र केवल अगुण द्वारा होनेवाली यकीन वृद्धि परिणमनको ही स्वप्रत्यय परिणमन बतलाया गया है। आगे आपने लिखा है कि 'मनुष्य, पशु, पक्षी आदि भिन्न-भिन्न जीवोंको गति आदिको अपेक्षा क्षणक्षण में भेद होनेसे उनमें (धर्मादि द्रव्यों में ) परप्रत्यय परिणामका भो व्यवहार किया जाता I इसके विषय में हमारा आपसे कहना है कि व्यवहार शब्दका अपने स्थान-स्थान पर उपवार हो अर्थ किया है और उपचारका भी अर्थ कल्पनारोपित किया है। मो ऐसा अर्थ आगम में सर्वत्र नहीं लिया गया है। इसके लिए प्रश्न नं० १७ की हमारी प्रतिशंका ३ को देखिये, उसमें हम व्यवहार के विविध अर्थ बत लानेवाले है जिनका उपयोग आगममे यथासंभव और पवाश्यक अर्थ में हो किया गया है। इसलिये यहाँ पर भी राजनातिक तथा सर्वार्थसिद्धिके अध्याय ५ सूत्र ७ में धर्मादि द्रव्योंमें होनेवाले पर परिणमन प्रसंग
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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