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________________ ६३६ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा व्यय है तथा घोड़े आदिकी गति तथा स्थिति कर अवगाहनहेतुरूप अवस्थाओं में क्षण क्षण में भेद होनेसे उन पर्यायोंमें परप्रत्यय उत्पाद व्ययका व्यवहार किया जाता है । तात्पर्य यह है कि धर्माद द्रव्योंमें परिणमन तो स्वप्रत्यय ही होता है, जो यथार्थ है, तथापि मनुष्य, पशु, पक्षी आदि भिन्न-भिन्न जीवों की गति आदिको अपेक्षा क्षण-क्षण में भेद होने से उनमें परप्रत्यय परिणामका भी व्यवहार किया जाता है । इसी तरह जोत्रकी स्वभाव पर्याय तो स्वप्रत्यय ही है, तथा पुद्गलरूप फर्म तोकर्मके निमित्तसे जो पर्या होती है वह विभातीय स्वपरप्रत्यय कही जाती है। इसी प्रकार पुद्गल परमाणुकी स्वभावपर्याय स्वप्रत्यय है और स्कंधरूप पर्याय विभावर्याय स्वपर प्रत्यय कड़ी जाती है । एक बात ध्यान में रखनेकी है कि स्वपरप्रत्ययरूप पर्याय में परको निमित्तताका यह अर्थ नहीं है कि उपादान की तरह निमित्त भी समतुला में बैठकर उस पर्यायका निर्माण करता हो। यह व्यवस्था आगमकी नहीं है। इसका कारण यह है कि पर्यायका स्वामित्व में है, पर पदार्थ तो निमित्तमात्र है। ऐसे स्थलों परनिमित्तकी मर्यादा वह आध्यय निमित्त नहीं है, किन्तु विशेष निमित्त है यही आगम परम्परा है । तृतीय दौर : ३ : शंका ११ परिणमनके स्वप्रत्यय और स्वपर प्रत्यय दो भेद हैं, उनमें वास्तविक अन्तर क्या है ? प्रतिशंका ३ हम अपनी द्वितीय प्रतिशंकाएँ इस बातको विस्तार के साथ स्पष्ट कर चुके है कि विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों में यथायोग्य होनेवाली पर्यायों को स्वप्रत्यय, स्वाभाविक स्वपरप्रत्यय और वैभाविक स्वपरप्रत्यय परिण मन में ही अन्तर्भूत करना चाहिये । आपने भी अपने द्वितीय प्रत्युतर में स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय-ऐसे दो भेद स्वीकार करनेके अनन्तर लिखा है कि 'द थ्योंके गतिहेतुत्व-स्थितिहेतुत्व आदि धर्मोके माश्रयसे जीव और पुद्गलोंमें जो गतिस्थिति आदि पर्यायें होती है ये भी अपनी विभिरूप गति स्थिति आदिसे धर्म-अधर्म नादि द्रव्योंके पर्याय परिवर्तनमें व्यवहारसे आश्रम निमित्त है।' ओर आगे राजवार्तिक तथा सर्वार्थसिद्धि अध्याय ५ सूत्र ७ का प्रमाण उपस्थित करते हुए धर्म-अधर्म आदि द्रव्यों में भी परप्रत्यय परिणमन आपने स्वीकार कर लिये हैं । आपके द्वारा स्वीकृत इस परप्रत्यय परिणमनको हमारे द्वारा स्वीकृत स्वाभाविक स्वपरप्रत्यय परिण मन में ही अन्तर्भूत करना चाहिये, कारण कि जैन संस्कृति में स्वकी अपेक्षा रहित केवल परके द्वारा किसी भी
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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