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________________ ६३८ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा में जो 'व्यवहियते' पाठ किया गया है उसका अर्थ उपवरित अर्थात् कल्पनारोपित नहीं करना चाहिये, कारण कि मनुष्य, पशु-पक्षी आदिको सद्भूत गति आदि निमित्तोंकी सहायतापूर्वक उत्पन्न होनेसे जन परिणमनों की धर्मादि द्रव्योंमें सद्भूतता ही मानने योग्य है, अन्यथा यदि धर्मादि द्रब्योंके गतिहेतुकत्वादि गुणामें कटस्थता आ जानेसे फिर धर्मादि द्रश्य उपयुक्त मनष्य पश-पक्षी आदिको भिन्न-भिन्न गति आदिमें सहायक नहीं हो सकेंगे। दूसरी बात यह है कि धर्मादिक्ष्यों में होनेवाले परसापेक्ष परिणमनोंको व्यवहारमात्र कहकर यदि कल्पनारोपित हो माना जायगा, तो ज्ञेयभूत पदार्थोके निमित्तसे होनेवाले ज्ञानके उपयोगाकार परिणमनोंको भी कल्पनारोषित (असद्भूत) ही माननेका प्रसंग उपस्थित हो जायगा। इसलिये जिस प्रकार ज्ञानके ज्ञेयभूत परपदाको अपेक्षासे उत्पन्न होनेवाले जानके उपयोगाकार परिणमन कल्पनारोपित (असदभूत) नहीं है उसी प्रकार परपदासापेक्ष होकर उत्पन्न होनेवाले घर्मादि द्रव्यों के परिणमन भी कल्पनारोपित (असद्भुत) नहीं है। अन्तमें आपने लिखा है कि 'स्वपरप्रत्ययरूप पर्याय में परको निमित्तताका यह अर्थ नहीं है कि उपादानकी तरह निमित्त भी समतुलामें बैठकर उस पर्यायका निर्माण करता हो।' इस विषयमें भी हमारा कहना यह है कि हमने जो स्वपरप्रत्यय परिणमनमें उपादानभूत और निमित्तभूत वस्तुओंमें विद्यमान कारणभावकी परस्पर विलसता रहते हुए भी कातिम दोनों की सम पेक्षा रहनेके कारण उपादान और निमित्त दोनों तरहकी वस्तुओंको 'समतुला' शब्द द्वारा समान सम्पन्न बसलाया है, सो हमने 'समतुला' शब्दका प्रयोग इस आशयसे नहीं किया है कि उपायामके समान निमित्तको भी कार्यरूप परिणत होना चाहिये अथवा उपादानके समान निमितको भी कार्यका भावय बन जाना चाहिये । किन्तु इस आशयसे किया है कि उपादानके स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप कार्यकी उत्पलिमें सहायक कारणरूप निमिसको उतनी ही अपेक्षा रहा करती है जितनी कि कार्यके आथयभूत उपादान की रहती है। अर्थात उपादान और निमित्त याने आषयकारण और सहकारी कारण इन दोनों में से एककी उपेक्षा कर देने पर कार्य (स्वपरप्रत्ययरूप परिणमन) कभी भी उत्पन्न नहीं हो सकता है, क्योंकि कार्योत्पत्तिमें जहाँ तक उपादान और निमित्तके बलाबलका सम्बन्ध है वहाँ तक तो यही माना जायमा कि उपादानशक्तिके अभाव में निमित्त किंचित्कर बना रहता है और इसी प्रकार उपादान भी निमित्तके सहयोगके विना कुछ नहीं कर सकता है। इस तरह परस्पर विलक्षण अपने-अपने ढंगको कार्योत्पादनकारणता रखते हुए भी कार्योत्पादनको दृष्टिसे दोनों ही समान. रूपसे शक्तिशाली है, इसलिए उसमें ( कार्योत्पादन में ) दोनों हो एक दूसरेका मुख ताकनेवाले हैं। इस तरह जज दोनों एक दूसरेको अपेक्षा रक्षकर ही कार्योत्पादन कर सकते हैं, तो केवल सहायकमात्र होनेसे उपादानको कार्यपरिणतिमें निमितकी उपयोगिता उपादानसे कम रहती हो ऐसा सोचना गलत है। यही कारण है कि स्वामी समन्तभद्रने कार्यको उत्पत्ति बहिरंग और अन्तरंग अर्थात् निमित्त और उपादान दोनों तरहके कारणोंकी समग्रताके सभावमें हो मानो है और यह भी प्रमाणित किया है कि द्रव्यगत स्वभाव ऐसा हो है कि बहिरंग सथा अन्तरंग उभय कारणांकी समग्रता पर हो कार्यको उत्पत्ति हो सकती है। उनका वचन निम्न प्रकार हैबाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्यप ते द्वध्यगतः स्वभावः ॥३०॥ -स्वयंभस्तोत्र इसका अर्थ ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । यहाँ पर 'दस्यगत-स्वभावः' पदसे इसका निराकरण हो जाता है कि किसी एक कार्योत्पत्तिके प्रति निमित्तता और उपादानवा दोनों हो एक वस्तु के धर्म है, और
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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