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________________ शंका ६ और उसका समाधान धिक वर्णादि भावोंको आलम्बनकर प्रवर्तती है, इसलिए वह व्यवहारनय दूसरेके भावोंको दूसरोंके कहती हैं।' इस प्रकार आगममें चार पदका क्या अर्थ लिया गया है, इसका यहाँ स्पष्टीकरण किया। हमें आशा है कि अपर पक्षने जो उपचारका अर्थ निमित्त-नैमित्तिक भाव किया है उसके स्थानमें वह 'अन्य वस्तुके गुणधर्मको दूसरी वस्तुमें आरोपित करना इसका नाम उपचार हैं' इसको हो उपचार पदका अर्थ स्वीकार करेगा । और इस प्रकार वह 'जो नय अन्य वस्तुके गुण-धर्मको अन्य वस्तुके कहता है या ग्रहण करता है वह व्यवहार असद्भूत व्यवहार नय है' इस अभिप्रायको भी स्वीकार करेगा। ८. बन्ध-मोक्ष व्यवस्था इसी प्रसंगमें अपर पक्षने आचार्य विद्यानन्धिके तत्त्वार्थरलोकवातिकमें आये हुए १४, १५ और १६ संख्याक बार्तिकोंके आधारपर चर्चा करते हुए 'ततः सकलकर्मविप्रमोक्षो' इत्यादि उल्लेख उपस्थितकर जी बन्ध-मोवादि व्यवस्थाको वास्तविक मानने की सुचना की है सो इस सम्बन्ध में निवेदन यह है कि आगममें द्रव्य और भावके भेदसे वन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सबको दो दो प्रकारका बतलाया है। उनमेंसे भाववन्ध, भावसंबर, भावनिर्जरा और भावमोश ये चारों स्वयं जीवको अवस्था होनसे या उस पर्याय विशिष्ट स्वयं जीव होनेसे ये स्वयं जीव हो हैं, ऐसा मानना यथार्थ ही है। इसका न तो हमने कहीं निषेध किया है और न निषेध किया ही जा सकता है। सम्भव है कि भार पक्ष भी इस वस्तुस्थितिको स्वीकार करेगा। इतना अवश्य है कि जीवले गग-द्वेष आदि भावोंको निमितकर जो कार्मण वर्गणाओंमें कर्मरूप परिणाम होता है उसे आगममें व्यबन्ध कहा है। इसी प्रकार द्रव्यसंबर, द्रव्वनिर्जरा गोर द्रव्यमोक्षका स्वरूा जान लेना चाहिए। सो इन्हें आगममें जह! जिस रूपमें निर्दिष्ट किया है उनको उस रूप में जानना हो यथार्थ जानना है, किन्तु इसके स्थान में यदि कोई श्रुतज्ञानी जीव जीवके राग-वेष आदि परिणामों में रुकनेको वास्तविक बन्धन समझकर कार्मण वर्गणाओंके राग-द्वेष आदि परिणामोंको निमित्तकर हुए ज्ञानावरणादि कर्म परिणामको जोवका वास्तविक बन्ध समझनेकी चेष्टा करे तो उसे सच्चा श्रतज्ञानी नहीं कहा जा सकता। अतएव प्रकृतम यही समझना चाहिए कि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको उपचरित स्वीकार करनेसे बन्ध-मोक्षको व्यवस्था बाघा आना सम्भव नहीं है, किन्तु इसके स्थान में यदि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको वास्तविक मान लिया जाय तो अवश्य ही बन्ध-मोक्षको व्यवस्था भंग हो जायगी, क्योंकि वैसी अबस्थामें दो या दोसे अधिक द्रव्यों का संयोग वास्तविक सिद्ध हो जानेपर सब द्रव्य मिलकर एक हो जायेंगे । इसलिए नानात्वको व्यवस्था न बन सकनेसे किराका वन्ध और किसका मोक्ष ? यह सब व्यवस्था गड़बड़ा जागी । अतएव यदि अपर पक्ष आगमोषत बन्ध-मोक्षकी व्यवस्थाको स्वीकार करना चाहता है तो उसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको भी आगमके अनुसार उपचरित स्वीकार कर लेना चाहिए। आचार्य विधानन्दि विष्ठ कार्य-कारणभावको निश्चयन पसे परमार्थभूत नहीं निर्दिष्ट कर रहे है। किन्तु वे व्यवहारनयसे ही उसे परमार्थभत कह रहे हैं। सो आगममें जैसे नामसत्य, स्थापनासत्य. जनपदरात्य, सम्मत्तिसत्य आदिका निर्देश किया गया है और उस रूप में इन्हें मानने में बाधा भी नहीं आती है। यदि कोई सम्यग्ज्ञानी जीव उस रूपमें उन नामादि व्यवहारोंको जानकर कथन करता है तो उसका वह जानना या कथन करना मिथ्या नहीं माना जाता है। ऐसी अवस्थामें अपर पक्ष ही बतलाव कि जो सभ्यग्ज्ञानी जीव निमित्त
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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