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________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा २. ततः कालमा स्वतो वृत्तिरेवोपचारतो चर्तना, धृतिवर्तकयोविभागाभावान्मुख्यवर्तनानुपपत्त: । -तस्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. ४१५ ३. भूतादिव्यत्रहारोऽतः कालः स्यादुपचास्तः । -तत्त्वार्थश्लोकधार्तिक पृ० ४ १९ ४. प्रत्येष्वपि गुणास्तदुपचरिता एध भवन्तु विशेषाभाचादित्ययुक्त, कमिन्मुख्यगुणाभावे तदुपचारायोगात् । -तत्त्वार्थश्लोकार्तिक पृ० ४४० ५. अज्ञानरूपस्यापि प्रदीपादेः स्वपरपरिस्थिती साधकतमत्वोपलम्भात्तन तस्याऽठयाप्तिरित्यप्ययुक्तम् , तस्योपचारात्तत्र साधकतमस्वव्यवहारान् । -प्रमेयकमटमार्तण्ड पृ०८ १. शंका-अतएव स्व के प्रदेश मुख्य नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि मुरूप कार्य-कारण देखा जाता है। उनके उपचरित होने पर कार्य-कारण भाव नहीं बन सकता 1 उपचरित अग्नि पाकादिकके उपयोगमें आती हुई नहीं देखी जाती, अन्यश उसे मुख्य अग्निपने का प्रसंग प्राप्त होता है। २. इसलिए काल परमाणु स्वतः वृत्ति होने के कारण उपचार से वर्तना है, क्योंकि बृत्ति और वतक में विभागका अभाव होनेसे मुख्य वर्सला नहीं बन सकती। ३. अतः भूतादि व्यवहार उपचारसे काल है। ४, शंका-द्रव्योंमें भी जो गुण हैं वे उपचरित ही रहे आयें, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है ? समाधान---यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कहीं मुख्य गुणोंका अभाव होनेपर उनका उपचार नहीं बन सकता। ५. शंका-मद्यपि दोएक अज्ञानरूप है तो भी उसकी स्व-पर परिच्छितिमें साघकसमपनेको उपलब्धि होनेसे उसके साथ उसकी अत्र्याप्ति प्राप्त होती है ? समाधान -- यह बहना अयुवत है, क्योंकि उपचारसे उसमें साधकतमपमेका व्यवहार किया गया है। ये आगमके कुछ प्रमाण है। जिनमें यह स्पष्ट हासे बतलाया गया है कि जो वास्तविक न होकर भी प्रयोजनाधिको ध्यान में रखकर दूसरी वस्तुके गुण-धमके नामपर व्यवहार पक्ष्वीको प्राप्त होता है उसकी आगममें उपचार संज्ञा रखी गई है । अतः आगममें असद्भूतव्यवहार और उपचार इन दोनों पदोंका एक ही अर्थ है। इनमें अर्थ भेद नहीं है, इसलिए आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा ५६ की टीकाम व्यवहार नयका पाख्यान करते हुए 'इद हि..."'"परभाव परस्य विदधाति ।' इन शब्दों द्वारा व्यवहारनयके विषयमें स्पष्टीकरण किया है। पंडितप्रवर जयचन्दजीने व्यवहारनय उसको कहा है जो दूसरेके भावोंको दूसरोंके कहता है । उक्त गाथाकी टोकामें उनके शब्द है--- यहाँपर व्यवहारनय, पर्यायाश्रित होनेसे पुद्गलके संयोगवश अनादिकालसे प्रसिद्ध जिसकी बन्ध पर्याय है ऐसे जीवके कसूमके लाल रंगसे रंगे हुए सफेद वस्त्रकी तरह औपा
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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