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________________ शंका ९६ और उसका समाधान समाधान नहीं, क्योंकि अनेकान्तगर्भ एकान्तफा सत्व स्वीकार करने पर कोई विशेष नहीं आता। ये आगमके दो प्रमाण है । इनसे गम्प अनेकाका और सम्यक् अनेकान्तगर्भ सम्बएकान्तका क्या स्वरूप इस पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। जो मात्र परस्पर विरोधी अनेक धर्मोका एक आत्मामें सद्भाव स्वीकार कर उसे कहते हैं उनका यह कथन किस प्रकार अपनार्थभूत है इस पर उक्त समय समग्र से सुन्दर प्रकाश पड़ता है। एक आध्या में एक पथ परस्पर विरोधी ऐसे हो धर्मयुगल स्वीकार किये गये हैं जो तु वस्तुवादक अगर पक्षने अनेकान्तका जो स्वरूप निर्वेश किया है वह कैसे अगम अन्त विरुद्ध है यह ज्ञात हो जाता है। ३. निश्चय और व्यवहारतयके विषयमें स्पष्ट खुलासा और पर्यायायिका आगे अगर पक्षने नक्के व्यार्थिकनय और पर्यायाधिकन ये दो भेद करके द्रव्याभिकनवको निश्चयनत्र तथा इसकी पुष्टि समयसार गाथा ५६ को आत्मस्वाति टोकावे की है अम विचार यह करना है कि अपर ने जो पाकिनवको निश्चयन और पर्याय व्यवहारनय लिखा है कि है और किस अपेक्षासे ठोक नहीं है। हमने अपने प्रथम उत्तरमे प्रयोजन विशेषको लक्ष्य रखकर रामसार आदि अध्यात्म ग्रन्थोंमें निश्वयनय और व्यवहारनयका जिल रूपमें स्वरूप निर्देश किया गया है उसका सुष्ट खुलासा करनेके बाद उनके अन्त में यह सूचना कर दोघी कि जहाँ पूर्वोक दृष्टिसे निश्चयनय स्ववहारनयका निरुपण किया गया हो उसे वहाँ उस दृष्टिसे और जहाँ अन्य प्रकार से निश्चयनय-व्यवहारनयका निरूपण हो वहाँ उसे उस प्रकार से दृष्टिपथ में लेकर उसका निर्णय कर लेना चाहिए। उक्षणादि दृष्टि से इनका कथन अन्यत्र किया हो है, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए। किन्तु अपर पहने इम और ध्यान न देकर लगता है कि आगमने बिना भी द्रव्याविनयका कथन है उस सबको विश्वयनका कथन मान लिया है और जितना भी पर्यायाकनका कथन है उस सबको व्यवहारनयका कथन भाग लिया है। आचार्य अमृतचन्द्र समयसार गाथा ५६ में जो निश्यनय-यवहारनयका स्वरूप निर्देश किया है वह सब मात्र समयसारकी रुपनीको ध्यान में रखकर ही है. इसलिए उसे उक्त प्रकार से समस्त द्रव्याधिलके और समस्त मदर लागू करना उचित नहीं है। नवग्रह ० ६९ में यह गाया आई है पर्यायार्थिक निच्छप-वहारणया मूलिमभेया गयाय सब्वाणं । छिसाइणहेउ जयदम्बधियं मुह || १८३ || सथ क्योंके मूल भेव दी है— निश्चयनय और व्यहारन और द्रव्याविकलयको जानो ॥१८३॥ इसके बाद पूगः यहाँ लिखा है दो चैव य मूखणया मणिया अपणे असंख-संखा ते सप्पेबा ७५७ ये सब उन दोनों क्योंके भेद जानने चाहिए ।। १८४ ॥ उनमे निषयको सिद्धिका हेतु दध्वथि पज्जयस्थिगया । ||१८४|| विनय और पर्यायामि ये दो मूल भेद कहे गये हैं। अन्य जिसने संख्या असंख्यात नय है
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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