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________________ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा इस प्रकार है-'कोई भी एक नय वस्तुके पूर्ण स्वरूपको नहीं कह सकता | नय तो शक धर्ममुखेन वस्तका कथन करता है। इतना अवश्य है कि उक्त वाक्यमें 'नय तो' पदके आगे 'प्रयोजनवश' या 'विवक्षित' पद लगा देना उपयुक्त प्रतीत होता है। इस परसे यह निश्चित हो जाता है कि अपर पचने नयका लक्षण करते हुए जो यह लिखा है-'अतः उन दोनों धर्मोमें से प्रत्येक धर्मकी विवक्षाको ग्रहण करनेबाला पुथक्-पृथक् एक-एक मय है।' वह ठीक नहीं है। अपर पक्षने 'प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक हैं वह स्त्रीकार करके भी उसको पृष्टि में आचार्य अमृतचन्द्रका मात्र 'परस्परविरुदशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः' इतना वचन उद्धृत किया है। किन्तु मूलभूत सिद्धान्तका सूचक प्रारम्भका समग्र वचन छोड़ दिया है । वह इस प्रकार है तत्र यदेव तत् सदेवातत् अदेकं तदेवानेकं यदेव सत् तदेवासत् यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकं परस्परविरुवशक्तिलयप्रकाशममनेकान्तः । जो तत है वही अतत है, जो एक है वही अनेक है, जो सत है वही असत तथा जो नित्य है वही अनित्य है ऐसे एक वस्तुमें वस्तुत्वको निपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो दाक्तियोंका प्रकाशित होना अनेकान्त है। यहाँ 'एक वस्तु में वस्तलको निपजानेवाली' यह मल सिद्धान्तको सूचित करनेवाला वचन है। अपर पक्षने इस वचमको छोड़कर अनेकान्तके स्वरूपपर इस तुंगसे प्रकाश डालने की चेष्टा की है जिससे अनेकान्तके स्वरूपपर दृष्टि न जाकर असद्भूत व्यवहारमयके विषयको विवक्षित एक वस्तुका धर्म सिद्ध किया जा सके । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि विवक्षित एक वस्तुके बस्तृत्वको मिगजानेवाले परस्पर विरुद्ध दो धर्म ही एक प्रस्तुमें पाये जाते है । इससे स्पष्ट है कि एक बस्तुके किसी भी धर्मका दूसरी बस्तुमें अत्यन्ताभाव है। सबाहरणार्थ जिस जीवमें भव्यत्व शक्ति हो उसमें अभवमत्व शक्तिका सद्भाव नहीं हो सकता। यदि इन दोनों शक्तियोंका अस्तित्व एक आत्मामें स्वीकार कर लिया जाय तो वस्तुके वस्तुत्वका ही नाश हो जायगा । शंका-समाधानके रूपमें इस विषयको स्पष्ट करते हुए धवला पु० १ पृ० १६७ में लिखा है अस्येकस्मिन्नामनि भूयसा सहारस्थानं प्रत्यविरुष्टानां सम्भवो नाशेषाणामिति चेत् ! क असाह समस्तानामप्यवस्थितिशिनि, चैतन्याचैतन्यभन्याभल्यादिधर्माणामध्यक्रमणैकारमन्यवस्थितिप्रसंगात् । किन्तु येषां धर्माणां नात्यन्ताभावो यस्मिनात्मनि सन्न कदाच्चित्क्वचिदनमेण तेषामस्तिस्वं प्रसिजानीमहे । शंका-जिन धर्मोका एक आत्मामें एक साथ रहने में विरोध नहीं है, वे रहें, परन्तु सम्पूर्ण धर्म तो एक साथ एक आत्मामें नहीं रह सकते ? समाधान-कौन ऐसा कहता है कि समस्त हो धर्मोको अवस्थिति है। यदि समस्त धर्मोकी एक साथ एक आत्मामे अवस्थिति मान लो जाय तो चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदिका भी एक साथ एक आत्मामें अवस्थितिका प्रसंग आ जायगा। इसलिए जिन पौका जिस आत्माम अत्यन्ताभाव नहीं है उसमें क्वचित् कदाचित् अक्रमसे उनका अस्तित्व जानते हैं । इसी तथ्यको और भी स्पष्ट करते हुए श्रवल पु.१ पृ. ३३५ में लिखा हैनियमेऽभ्युपगम्यमाने एकान्तबादः प्रसजतीति चेत् ? न, अनेकान्तगर्मकान्तस्य सवाविरोधात् । शंका-सम्यग्मिथ्यात्व गणस्थानमे पर्याप्त ही होते हैं ऐसे नियमके स्वीकार करने पर एकान्तवावका प्रसंग आता है ?
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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