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________________ ६२० जयपुर (खानिया ) तमचर्चा mi fa qua (21) ततः पूर्वावस्थामन्यवनपूर्वकं सासयिकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते (५/२४) अर्थात् — बंधकी अपेक्षा एक है। संघ से पूवस्थाका त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है, अतः उनमें एकरूपता आजाती है । इससे भी बन्धकी वास्तविकता हो सिद्ध होती है । है इन सब प्रमाणोंके प्रकाश में स्कन्ध, देश, प्रदेश आदि पुद्गल द्रव्योंकी समानजातीय पर्यायें तथा जो और पुद्गल के मिश्रण से बननेवाली देव, मनुष्पादि पर्यायें तभी उत्पन्न हो सकती है जब कि मूल द्रव्यके अनित्यांशभूत स्वकाल और स्वभावमें परिणमन हो जाये। यदि उक्त पर्यायोंमें द्रव्य के अनित्यांशभूत स्वकाल और स्वभाव भी तरह जो ऐसी हालका निर्माण कभी संभव नहीं होगा । परन्तु बात दरअसल यह है कि परमाणु जब घणूक, प्रयणुक आदि स्कंनको अवस्थाको प्राप्त होते हैं तब वे अपनी कत्वपयको छोड़कर स्कन्धरूप पर्यायको धारणकर लेते हैं। यदि ऐसा न हो तो फिर सूक्ष्मताको प्राप्त अणुओंके स्कन्धमें स्थूलता तथा अदृश्यता के स्थानपर दृश्यला किसी भी प्रकार संभव नहीं होगी । इसलिये परिवर्तित स्वरूणस्तित्वको लिये हुए ही स्कन्धपरिणति उन पुद्गलों में आती है । यह परिणति उसी पुद्गल द्रव्यर्क स्निग्मत्व और रूक्षस्य गुणकी विकृतिरूप उपादान शक्ति से निर्मित कंचित् एकत्वरूप है, इसलिए बन्चरूप अवस्था जिसे स्कंध कहो, चाहे अनेक द्रश्योंकी समानजातीय या असमानजातीय पर्याय कहो, ये सभी द्रव्यगत विशेष ही हैं, अतः वह पर्याय भी अर्थ है, वास्तविक परिणमन है, उन द्रव्योंसे जुदा नहीं है । नैयायिक लोग तो गुणपदार्थको गुणीसे भिन्न मानते हैं, इसलिए उनके मतसे संयोग द्रव्यसे भिन्न एक गुण है। जैनागम यद्यपि द्रव्यसे भिन्न संयोगको गुण नहीं मानता है तो भी वह दो द्रव्योंके बत्मक परि मनको तो स्वीकार करता ही है। तो फिर दो पुद्गलों को अंघात्मक अवस्थारूप समानजातीय द्रव्यपर्यापको तथा जीव पुद्गलाको बंधात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्यायकी अवास्तविक कैसे कहा जा सकता है। प्रवचनसार ० १२० पर भी लिखा है - तत्रैव चानेकपुद्गलारमको अणुक्रम्यणुक इति समानजातीयो वव्यपर्यायः - गाथा ९३ टीका अर्थ — अनेक पुद्गलोंके रूप ही वचणुक और शुक में सब समानजातीय द्रव्यपर्याय ही है । ऐसी स्थिति में इन्हें वस्तुस्वरूप हो माना जाना युक्तिसंगत और आगमसम्मल है। मतः इन्हें व्यवहारनमाश्रितता के आधार पर उपचरित (कल्पनारोगित) बतलाना कहाँ तक उचित है । इसीलिये प्रवचनसार के ज्ञेय तत्त्वाधिकारको गाथा १ की टीका करते हुए आचार्य श्री अमृतचन्द्र अन्त में बहुत स्पष्ट लिखा है कि - सर्वपदार्थानां द्रव्यगुणपर्यायस्वभावप्रकाशिका पारमेश्वरी व्यवस्था साधीयसी । अर्थ- सर्व पदार्थो की द्रव्य-गुण- पर्यायरूप स्वभावकी प्रकाशक भगवान् सर्वज्ञ अर्हन्तदेव द्वारा उपदिष्ट व्यवस्था ही सत्य है । इसी प्रकार इन्हीं पर्यायोंके आधार पर ही उत्पाद व्यय श्रीष्मकी व्यवस्था प्रतिपादित की गयी है ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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