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________________ शंका १० और उसका समाधान ६२१ जो परमाण, दुवणक और व्यणक आदिमें कात्यको हौ लक्षित करता है। यदि स्वरूपास्तित्व में जो अंध पर्यायको प्राप्त है वह यदि परिवतित हए बिना ही रह जाये तो फिर द्वयणकादि पर्याय कैसे बनेंगी? इतना अवश्य है कि परमाणका जो अनुगामी अंश द्रव्याथिक नयगम्य होगा, वही अपरिवर्तित ह जावेगा और उसके अपरिवर्तित बने रहने पर भी जो पर्याय होती है उनको स्व-गरप्रत्यय माना गया है । विस्तरेण अलम् । इस पर आप विचार कीजिये । यही हमारा अन्तिम अनुरोध है । मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो मणी । मंगलं कुन्दकुन्दायों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका १० जीव तथा पुद्गलका एवं द्वयणुक आदि स्कन्धों का बन्ध वास्तविक है या अवास्तविक ? यदि अवास्तविक है तो केवली भगवान उसे जानते हैं या नहीं ? प्रतिशंका ३ का समाधान इस प्रश्नका समाधान करते हुए पिछले दो उत्तरों में बतलाया गया था कि परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव से जीव और पदगलोंका तथा पुद्गल-पुद्गलका जो विशिष्टतर अवगाह होता है उसकी बंध संज्ञा है। यह वास्तविक है या अवास्तविक ? इसका निर्णय करते हुए बतलाया गया था कि सत्ता दो प्रकारकी मानो गई है--स्वरूपसत्ता और उपचरित सत्ता । स्वरूपसत्ताको अपेक्षा प्रत्येक परमाणु या भीष अपने अपने स्वचतुष्टयमें ही अवस्थित रहते है, इसलिए स्वतन्त्र है, क्योंकि वो या होसे अधिक परमाणु या जीव और पृद्गल सर्वथा एक नहीं हुए हैं। किन्तु बन्ध होने पर जामे जो एक क्षेत्रात्र माहरूप एक पिण्डरूपता प्राप्त होती है वह उपचरिलमत् है । अतएव केवली जिन जैसे स्वरूपगत् को जानते है वैसे ही एक पिण्ड व्यवहारको प्राप्त उपचरित सतको भी जानते है, क्योंकि परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावसे उस उस पर्यायपरिणत एकक्षेत्रावगाहरूप वे केवलोके ज्ञान प्रतिभासित होते है । तत्काल प्रतिमाका ३ विचारके लिए प्रस्तुत है। इसमें सर्वप्रथम प्रतिशंका २ में उठाये गये ५ प्रश्नोंको पुनः निबद्ध कर प्रथम प्रश्नका उत्तर देते हुए हमारे द्वारा लिखे गये एक वाक्य पर आपत्ति की गई है। वह बाक्य इस प्रकार है-- 'जीवके अज्ञानरूप मोह, राग-द्वेष परिणाम तथा योग द्रब्धकर्मके बन्धके निमित्त हैं और ज्ञानावर णादि कमौका उदय अज्ञानरूप जीवभावोंके होनमें निमित्त है।' सो यद्यपि यह वाक्य शास्त्रविरुद्ध तो नहीं है, परन्तु अपर पक्षने 'ज्ञानावर णादि कर्मोंका उदय अज्ञानरूप जीवभाव के होने में निमित्त है। इस बाक्यको पढ़कर इसपर अत्यधिक आश्चर्य प्रगट करते हुए लिखा है-'लेकिन ज्ञानावरणादि कोका बन्दय अशानरूप जोवनावों के होने में निमित्त है यह वाक्य
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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