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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा कि मिथ्यात्वोदयमें अनिवृत्तिकरण कालमें प्रथम स्थितिके और द्वितीय स्थितिके मध्यके दर्शमोहनीय निषेकोंका अभाव हो जानेसे अन्स रायाममें दर्शनमोहनीयका द्रव्य नहीं रहता और द्वितीय स्थितिके दर्शनमोहनीय कर्मका उपधाम हो जानेसे प्रथम स्थितिकालके समाप्त होनेपर प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है, क्योंकि वहाँ पर दर्शनमोहनीयका अभाव पहले ही हो चुका था (लघिसार)। दूसरे उपर्युक्त गाणाके विरुद्ध निश्चय रत्नाको साधन और व्यवहार रत्नत्रयको साध्य बतलाया वै । आप आगमविरुद्ध कार्यकारणभावको विलोमरूपसे कहते है यही मतभेदका कारण है।
दूसरे उत्तर में 'निश्चवनयको अपेक्षा विचार करनेगर जोब स्वयं श्राने अपराधके कारण बद्ध है, अन्य किसोने बलात बाँध रखा है और उसके कारण वह बंध रहा हो ऐसा नहीं है ।' आपका ऐसा कथन आगमविरुद्ध है, क्योंकि निश्वयनयको दृष्टि में आत्मा बद्ध नहीं है। जैसा कि समयसार गाथा १४१ को टीका श्री अमृतचन्द्र आचार्यने कहा है-'जीत्र और पुदगलकमको एक बन्ध पर्यायपनसे देखनेपर उनमें अत्यन्त भिन्नताका अभाव है, इसलिये जीवमें कर्म बद्धस्पष्ट है, ऐसा व्यवहारलगका पक्ष है। जीवको तथा पुदगलको अनेक द्रब्यपन से देखनपर उनमें अत्यन्त भिन्नता है, इसलिये जीवमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है. यह निश्चयनयका पक्ष है।' इसीको कर्ता कर्माधिकार कलश नं० २५ में इन शब्दोंमें कहा है-'एकस्य बद्धो न तथा परस्य' अर्थात् व्यवहारनयकी अपेमा आत्मा बद्ध है, निश्चयनयकी अपेक्षा आत्मा बद्ध नहीं है। क्योंकि निश्वयनयका विषय दो द्रव्योंका या दो द्रव्योंकी पर्यायोंका सम्बन्ध नहीं और अकेले जीबके बंधको उपपत्ति नहीं बनती जैसा कहा भी है--'स्वयं पकस्य पुण्यपापानवसंघरनिराधमोक्षानुपपस। -समयसार गाथा १३ रीका
आप लिखो हैं--पालन शानदारयको अपेक्षा उसके उस अपराधको ज्ञानावरणादि कर्मोंपर आरोपित कर यह कहा जाता है कि ज्ञानावरणादि कमौके कारण यह पद' असभा ज्यालयकी अपेक्षा जोव ज्ञानावरणादि कर्मोंसे बद्ध है यह बात सत्यार्थ है, किन्तु आपने इस सत्य सरल कथनको तरोड़-मरोड़कर आरोपित आदि शब्दों के प्रयोग द्वारा असत्य तथा जटिल बनानेका प्रयास किया है जो शोभनीक नहीं है। व्यवहार और निश्चव दो नय है और भगवान का उपदेश भी इन दो नयों द्वारा हुआ है। दोनों ही मयोंका विषय अपना-अपनो नयकी दृष्टि से सत्यार्थ है। किन्तु एक नयको दृष्टि में दूसरे नयका विषय न होनेस उस दूसरे नयके विषयको अभूतार्थ कहा जाता है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरे नयका विषय आकाशके पुष्पके समान सर्वथा अप्रत्यार्थ है । इम्रो वातको श्री अमृत चन्द्र सूरि समयसार गाथा १४ में इन शब्दों द्वारा प्रकट करते हैं-अनादि कालो बँधे हुए आत्माका, पुद्गलकमों से बंधने-स्पर्शित होनेरूप अवस्थासे अनुभव करनेपर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है-पत्यार्थ है, तथापि पुद्गलसे किंचित् मात्र भो स्वर्शित न होने योग्य आत्पस्वभावके समीप जाफर अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता अभतार्थ है-असत्यार्थ है।' अर्थात् जीवको एक ही बंध अवस्थाको व्यवहार और निश्चय दो भिन्न-भिन्न दृष्टिषोंसे देखने पर सत्यार्थ और असत्यार्थ दिखाई देलो है । इसका यह अर्थ नहीं है कि व्यवहारनय असत्यार्थ है या व्यवहार मय का विषय सर्वया असत्यार्थ है। 'जीव ज्ञातावरणादि कर्मों से बद्ध है' जब यह उपवहारनयको दृष्टि से सत्यार्थ है तो उसमें जो आरोपादि शब्दों का प्रयोग हुआ है वह विपरीत मान्यताके कारण हुआ है। श्री श्लोकदातिक पृ० १३१ पर भी कहा है
___ तदवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विधः सम्बन्धः संयोग-समवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमाधिकः एव न पुनः कल्पनारोपितः, सपंथाप्यनवद्यत्वात् ।
___ अर्थात् व्यवहारनय से दो पदार्थों में रहनेवाला कार्यकारणभाव परमार्थ है, काल्पनिक नहीं तथा सर्वथा निर्दोष है।