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शंका ६ और उसका समाधान
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पदार्थ पर और अन्य सहकारी सावन सामग्री पर वो उस भविष्यताका आधिपत्य हो केवल हमारे संकल्प पर उसका आधिपत्य न हो यह बात बहुत अटपटी मालूम पड़ती है। और हो कुछ जाता है यह स्थिति कदापि उत्पन्न नहीं होना चाहिये ।
इस तरह मनुष्य चाहता तो कुछ है
एक और भी अर्थ 'वादशी जायते बुद्धिः' इत्यादि पका होता है वह यह है कि जिस मार्गके अनुकूल वस्तुमें उपादान शक्ति हुआ करती है समझदार व्यक्ति उस वस्तुसे उसी कार्यको सम्पन्न करने की बुद्धि ( भागना ) किया करता है और वह पुरषार्थ (व्यवसाय) भी तदनुकूल ही किया करता है तथा वह यहाँ पर तदनुकूल ही अन्य सहायक साधन सामग्रीको जुटाता है।
इस तरह उक्त पद्यका यदि यह अर्थ स्वीकार कर लिया जाय तो भी इसके साथ जैन संस्कृतिकी कारण व्यवस्थाका विरोध नहीं रह जाता है, लेकिन यह बात तो निश्चित समझना चाहिये कि 'खाशी जायते बुद्धिः' इत्यादि का कोई भी अर्थ क्यों न कर लिया जाय यदि वह अर्थ जैन संस्कृति की मान्यता अनुकूल होगा तो उससे आपके भवितव्यता से ही कार्यको सिद्धि हो जाया करती है निमित्त वहाँ पर अकचिकर हो रहा करते हैं इस मतकी पुष्टि नहीं होगी और जैसा अर्थ आपने उक्त पद्मका किया है यदि उसे ही पक्षका सही अर्थ माना जाय तो जैन संस्कृतिक मान्यता विरुद्ध होने के कारण उसका आपके द्वारा प्रमाणरूपसे उपयोग करना अनुचित माना जायगा।
कुछ विचारणीय बातें
जिस प्रकार स्त्री अपने गर्भाशय में गर्भधारण करके संतान उत्पन्न करती है, परन्तु उस गर्भके धारण करनेके लिये पुरुषका निमित्त उसको अनिवार्य आवश्यक होता है। सती विधवा और अवध्या स्त्री इस कारण सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकती, क्योंकि उसको का निमित नहीं मिलता।
उपादानके अन्दर अनन्त शक्तियाँ विद्यमान है और जब जिस शक्ति के विकास के योग्य निमित्त मिल जाते हैं तब वह शक्ति विकासको प्राप्त हो जाती है। रसोइया परमें गेहूं का आटा माड़ कर रखे हुए हैं। भोजन करनेवाले की इच्छानुसार वह उसी से कभी रोटी बनाता है, कभी पुड़ी बनाता है और कभी पराया बनाता है। रसोइया इन सब चीजों को बराबर आवश्यकतानुसार दल-बदल कर बनाता मला जाता । भोजन करनेवाले भोजन भी करते जाते है। उक्त रोटी, पुड़ी और पराठेके निमित्त यथायोग्य अलगअलग भी हैं और एक भी हैं। यहाँ पर विचारणीय बात नाना शक्तियों की है कि जितना गेहूँ पोसा गया वह एक ही चक्कीले पोसा गया और उस सम्पूर्ण आसे प्रत्येक दानेका अंश समा गया और सभी घाटेको पानी डालकर मार दिया गया। इस तरह के प्रत्येक दानेका अंश रोटीमें पहुँचा, पुड़ीमें पहुंचा और पराममें भी पहुंचा इससे सिद्ध हुआ कि के प्रत्येक दाने रोटी बनने की शक्ति पी एड़ी शक्ति थी, और पराठा बनने की शक्ति थी। विकास उसकी उस शक्तिका हुआ जिसके विकास के लिये रसोइयाकी इच्छाशक्ति, बुद्धिशक्ति और श्रमशक्तिका योग प्राप्त हुआ ।
आप लोगोंको सरवच आये प्रश्नोंका उत्सरत है वह न तो केवल आत्मा द्वारा लिखा जा सकता है, क्योंकि आत्मा स्वयं अशरीरी है। उसके हाथ, पैर, आँख, अंग-उगांग नहीं है। इसी तरह प्रश्नोंका उत्तर के लिये जहाँ आपको हाथ, आंख आदि शरीरके अवयवोंकी आवश्यकता है वहाँ उनके साथ प्रकाश, लेखनी, स्याही, कागज आदि बाह्य साधनों की भी आवश्यकता है। इनमें से आवश्यक किसी
एक