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प्रथम दौर
: १:
नमः श्री वीतरागाय
मंगलं भगवान् वीरो मंगळ गौतमी गणी । मंगलं कुन्दकुन्द्रार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
शंका ७
केवली भगवानकी सर्वज्ञता निश्चय से है या व्यवहारसे ? यदि व्यवहार से है तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ?
समाधान १
आगम में निश्चय व्यवहार नयसे केवल भगवान्के केवलज्ञानके स्वहा का निर्देश करते हुए श्री नियमसारजी में लिखा है
जाणदि पस्सदि सयं घवहारणयेण केवली भगवं । केवलणाणी जापदि पस्सदि नियमेण अप्पाणं ॥ १५९ ॥
अर्थ-व्यवहार नवसे केवली भगवान् सबको जानते और देखते हैं, निलय नयसे केवलज्ञानो आत्माको जानता और देखता है ।। १५९ ॥
इसपर यत्र शंका होती है कि जब कि आगम केवल जिनका तोन लोक और त्रिकालवर्ती द्रव्यगुण पर्यागात्मक सब पदार्थों का जानना व्यवहार से माना गया है, निश्नयमे तो वे मात्र अपनी आत्माको हो जानते है । ऐसी अवस्थामं केवली जिनकी सर्वज्ञता अद्भुत ही ठहरती है। अतएव मात्र यही कहना उपयुक्त होगा कि वस्तुतः सर्वज्ञ अपनी आत्मा के मिश्राय अन्य किसीको नहीं जानते ? यह एक शंका है जिसपर यहाँ संक्षेप विचार करना है । प्रदन यह है कि केवली जिनकी सर्वज्ञता पराश्रित है या स्वाति ? यदि वह मात्र पराश्रित है तो उसे अद्भूत हो मानवी होगी। और यदि वह स्वाति भी है तो यहाँ यह देखना होगा कि श्रो नियमनारजीकी उक्त गाथायें जो यह कहा है कि केवलो जिन निश्चचसेनाको जानते है उसका क्या तात्पर्य है ?
यह तो सुनिश्चित सत्य है कि जो धर्म लोक में पाया जाता है उसीका एक पके आश्रयसे दूसरे द्रव्यपर आरोप किया जा सकता है। जिस धर्मका सर्वथा अभाव होता है उसका किसी पर आरोप करना भी नहीं बनता। उदाहरणार्थ लोक में बन्ध्यासुत या आकाशकुसुम नहीं पाये जाते, अत: उनका किसी पर आरोप भी नहीं किया जा सकता। अतएव सर्वज्ञता नामका धर्म कहींवर होना चाहिये तभी उसका परकी अपेक्षा आरोप करना संगत ठहरता है अन्यथा यहू व्यवहार ही नहीं बन सकता कि केवलो जिन सबको जानते हैं । इसलिये प्रकृत में यह तो मानना ही होगा कि सर्वज्ञता नामका धर्म कहीं न कहीं अवश्य रहता
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